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________________ ध्यक्ति से समाज और समाज से व्यक्ति | १५६ कतर व्यक्ति और समाज में समन्वय का ही समर्थन किया गया है । भगवान महावीर ने तथा भगवान बुद्ध ने अवश्य ही व्यक्ति की अपेक्षा संघ को अधिक गौरव प्रदान किया है। यहां तक कि जैन संस्कृति में सर्वोच्च सत्ता माने जाने तीर्थंकर भी तीर्थ एवं संघ को नमस्कार करते हैं । महान से महान आचार्य भी यहां पर संघ के आदेश को मानने के लिए बाध्य होता है । यद्यपि जैन धर्म के सिद्धान्त के अनसार संघ की रचना एक व्यक्ति ही करता है, और वह व्यक्ति है तीर्थंकर। फिर भी संघ को, तीर्थ को और समाज को जो इतना अधिक गौरव प्रदान किया गया है, उसके पीछे एक ही उद्देश्य है, कि संघ और समाज की रक्षा और व्यवस्था में ही व्यक्ति का विकास निहित है। पहले संघ और फिर व्यक्ति । जैन-संस्कृति की संघ-रचना में और उसके संविधान में गृहस्थ और साध को समान अधिकार की उपलब्धि है । जैन-संस्कृति में संघ के चार अग माने गए हैंश्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका । इन चारों का समवेत रूप ही संघ है। आध्यात्मिक दृष्टि से जो अधिकार एक श्रमण को प्राप्त हैं, वही अधिकार श्रमणो को भी प्राप्त है। जो अधिकार एक श्रावक को हैं, उतने ही अधिकार एक श्राविका को भी हैं। यदि जैन इतिहास की दोर्घ परम्परा पर और उसकी विशिष्ट संघ रचना पर गम्भीरता से विचार किया जाए, तो यह परिज्ञात होगा, कि जैन-संस्कृति मूल में व्यक्तिवादी न होकर, समाजवादी है। किन्तु उसका समाजवाद आर्थिक और राजनैतिक न होकर एक आध्यात्मिक समाजवाद है। वह एक सर्वोदयी समाजवाद है, जिसमें सभी के उदय को समान भाव से स्वीकार किया गया है। यहां पर एक के पतन पर दूसरे का उत्थान नहीं है, और यहाँ पर एक के विनाश पर दूसरे का विकास नहीं है, बल्कि एक के उत्थान में सबका उत्थान है, और एक के पतन में सबका पतन है. तथा एक के विनाश में सबका विनाश है, और एक के विकास में सबका विकास है। इस प्रकार जैन संस्कृति का समाजवाद एक आध्यात्मिक समाजवाद है। वैदिक परम्परा में और वैदिक संस्कृति के इतिहास में यह बताया गया है, कि विश्व में व्यक्ति ही सब कुछ है, समाज तो एक व्यक्ति के पीछे खड़ा है । वह व्यक्ति भले ही ईश्वर हो, परब्रह्म हो, अथवा विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र हो, कोई भी हो, एक व्यक्ति के संकेत पर ही वहां सारा विश्व खड़ा होता है । व्यक्तिवाद को इतनी स्वतन्त्रता देने का एकमात्र कारण यह है, कि वैदिक संस्कृति के मूल में सम्पूर्ण विश्व में एक ही सत्ता है-पर ब्रह्म। उसी में से संसार का जन्म होता है, और फिर उसी में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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