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जीवन और अहिंसा | १५३ तीय परम्परा में और भारतीय समाज मे, विचार और आचार में, ज्ञान और क्रिया में, श्रद्धा और तर्क में, धर्म और दर्शन में, समन्वय माना गया है। समन्वय के बिना समाज चल नहीं सकता। अहिंसा और अनेकान्त :
आपके सामने अहिंसा की बात चल रही थी। मैंने यह भी बतलाया था, कि कृषि-कर्म में हिंसा और अहिंसा को लेकर मध्य युग में किस प्रकार का विवाद चला था, जिसका क्षीण आभास आज भी हमें उस युग के साहित्य में उपलब्ध होता है । विवाद की बात को छोड़कर यदि मूल लक्ष्य पर और मूल बात पर विचार किया जाए, तो निष्कर्ष यह निकलता है, कि जैन संस्कृति और जैन परम्परा का मूल आचार अहिंसा ही है । असत्य बोलने में हिंसा होती है, चारी करने में हिंसा होती है, व्यभिचार करने में हिंसा होती है, परिग्रह रखने में हिंसा होती है, इसलिए इन सबका परित्याग आवश्यक है। हिंसा के परित्याग के लिए और अहिंसा के संरक्षण के लिए ही अन्य व्रतों की परिकल्पना की गई है । मुख्य व्रत अहिंसा ही है । यही कारण है, कि जैन आचार शास्त्रका मुख्य सिद्धान्त अहिंसा है । इसी प्रकार जैन-दर्शन का मुख्य विचार अनेकान्त है। आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त, यह जैन संस्कृति का मूल स्वरूप है। अहिंसा और अनेकान्त का अर्थ है - जैन-धर्म और जैन-दर्शन । अहिंसा धर्म है और अनेकान्त दर्शन है। श्रद्धा धर्म है और तर्क दर्शन है। क्रिया धर्म है, और ज्ञान, दर्शन है। बौद्ध दर्शन के भी दो पक्ष प्रचलित हैं -हीनयान और महायान । मुख्य रूप से होनयान आचार-पक्ष है और महायान विचार-पक्ष । हीनयान मुख्य रूप में धम है और महायान मुख्य रूप में दर्शन एवं तर्क है। सांख्य और योग को लें, तो उसमें भी हमें यही तथ्य मिलता है, कि सांख्य दर्शन शास्त्र है और योग उसका आचार-पक्ष है। यही बात पूर्व मीमांसा और उत्तर मोमांसा के सम्बन्ध में भी समझ लीजिए। पूर्व मीमांसा आचार का प्रतिपादन करता है और उत्तर मीमांसा दर्शन और तर्क का आधार लेकर चलती है। मेरे कहने का अभिप्राय इतना ही है, कि प्रत्येक परम्परा का अपना एक दर्शन होता है, और प्रत्येक परम्परा का अपना एक आचार भी होता है। इस धरती पर एक भी सम्प्रदाय ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें विचार के अनरूप आचार का और आचार के अनरूप विचार का प्रतिपादन न किया गया हो। भारतीय परम्परा ही नहीं बाहर की परम्पराओं में भी हमें यही सत्य उपलब्ध होता है । मुस्लिम
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