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________________ १५२ | अपरिग्रह-दर्शन अपने विचार में धर्म शब्द का अर्थ ----Religion से कहीं अधिक व्यापक एवं गम्भीर है। इसी प्रकार दर्शन शब्द का अर्थ --Philosophy से कहीं अधिक व्यापक और गम्भीर है । पाश्चात्य संस्कृति में धर्म की धारा अधिक बहती रही और दर्शन की धारा अलग प्रवाहित होती रही। परन्तु भारतीय संस्कृति में धर्म और दर्शन का यह अलगाव एवं विलगाव स्वीकृत नहीं है, भारत का धर्म दर्शन-विहोन नहीं हो सकता। और भारत का दर्शन, धर्म विकल नहीं हो सकता । धर्म और दर्शन के लिए भारतीय संस्कृति में बहुविध और बहमुखी विचार किया गया है । मानव-जावन को विकसित एवं प्रगतिशील बनाने के लिए, श्रद्धा और तर्क दोनों के समान विकास की आवश्यकता है। श्रद्धा की उपेक्षा करके केवल तर्क के आधार पर भारतीय संस्कृति खड़ी नहीं रह सकती। और तर्कविहीन श्रद्धा भो भारतोय संस्कृति को प्रेरणा प्रदान नहीं कर सकती। भारतीय संस्कृति के अनुसार श्रद्धा का पर्यवसान तर्क में होता है और तर्क का पर्यवसान श्रद्धा से होता है। यद्यपि धर्म का मुख्य आधार श्रद्धा है, और दर्शन का आधार तर्क है, किन्तु यह सब कुछ होते हुए भी भारतीय संस्कृति में हृदय को बुद्धि बनना पड़ता है और बुद्धि को हृदय बनना पड़ता है । हृदय की प्रत्येक धड़कन में, बुद्धि का विमल प्रकाश अपेक्षित रहता है, और बुद्धि को प्रत्येक सूझ में श्रद्धा से सम्बल को आवश्यकता रहता है । यदि श्रद्धा और तर्क में समन्वय स्थापित नहीं किया गया, तो इन्सान का दिमाग आकाश में घूमता रहेगा और उसका दिल, धरती के खण्डहरों में दब जायगा । मेरे विचार में मानवीय-जीवन की यह सर्वाधिक विडम्बना होगी। आचार और विचार : भारतीय परम्परा में, फिर भले ही वह परम्परा वैदिक रही हो, अथवा अवैदिक, प्रत्येक परम्परा के आचार के साथ विचार के साथ आचार की मान्यता प्रदान की है। यहाँ तक कि चार्वाक दर्शन, जो जड़वादो, नास्तिकवादी और नितान्त भौतिकवादी है, उसके भी कुछ आचार के नियम हैं। भले ही उस आचार-पालन का फल वह परलोक या स्वर्ग न मानता हो, पर समाज-व्यवस्था के लिए वह भी कुछ नियम तथा आचार स्वीकार करता है। एक वात और है, कि प्रत्येक परम्परा का आचार उसके विचार के अनुरूप ही हो सकता है । यह नहीं हो सकता कि विचार प्रभाव आचार पर न पड़े, साथ में यह भी सत्य है, कि आचार का प्रभाव भी विचार पर पड़ता है। यही कारण है, कि भारतीय संस्कृति में, भार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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