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________________ जीवन और अहिंसा | १४७ समाज में यह एक बहुत बड़ी क्रांति थी । जब जन-जीवन में नयी क्रांति है, और जब वह अनेक विघ्न-बाधाओं से निकलकर प्रशस्त पथ पर आगे बढ़ती है, तब जन-जीवन में आनन्द और उल्लास छा जाता है । उस क्रांति का उल्लास और आनन्द होलिका के रूप में हमारे सामने आया । प्रतिवर्ष यह हमारी परम्परा और संस्कृति का अंग बनकर हमारे सामने आता रहता है, आज भी । इस शुभ अवसर पर हम एक दूसरे से मिल-जुलकर सामाजिक आनन्द का उपभोग करते हैं । होलिका पर्व पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सब परस्पर मिलकर आनन्द और उल्लास मनाते हैं । होलिका के पर्व के अन्दर किसी प्रकार का भेद-भाव न रहता था। यह हमारी मूल संस्कृति का पावन प्रतीक है । यह पर्व हर इन्सान को प्रेम का पाठ पढ़ाकर मानव समाज में परिकल्पित ऊँच-नीच के भाव को दूर करता है । वर्तमान समय में इसमें कुछ विकृति अवश्य आ गई है । गन्दी गाली देना और गन्दी हरकत करना, इस पर्व के आवश्यक अंग मान लिए गए हैं । परन्तु यथार्थं में यह ठीक नहीं है । हम स्वयं हँसें और दूसरों को हँसाएँ, यह तो ठीक है, पर हम दूसरों के साथ ऐसा मजाक करें, जो हमारी मूल संस्कृति और मूल परम्परा के विरुद्ध हो, उसका परित्याग करना ही आवश्यक है। जीवन में विनोद अवश्य होना चाहिए, पर किसी प्रकार का विरोध नहीं । पर्व हम आज भी मनाते हैं, किन्तु आज हम केवल उसके शरीर की आराधना करते हैं, उसकी मूल आत्मा को आज हम भूल चुके हैं । आवश्यकता इस बात की है, कि हम पर्व के शरीर को नहीं, उसकी मूल आत्मा को पकड़ने का प्रयत्न करें, तभी सच्चे अर्थों में जन-जीवन में उल्लास और आनन्द प्रकट हो सकेगा । होली के पर्व की सार्थकता इसी में है, कि हम सब मिल-जुल कर आनन्द और उल्लास प्राप्त कर सकें । अहिंसा और दीपावली : दीपावली पर्व भी भारत का एक प्रसिद्ध पर्व है । होलिका के समान दीपावली पर्व भी हमारा एक सामाजिक एवं राष्ट्रीय पर्व है। क्योंकि दीपावली पर्व को भी समाज के सभी व्यक्ति बड़े उल्लास के साथ मनाते हैं । दीपावली पर्व मनाने वाले व्यक्तियों में, किसी भी प्रकार का वर्ग-भेद और वर्ण-भेद नहीं माना जाता । दीपावली पर्व को मनाने में हमारा मूल उद्देश्य क्या है । यह बहुत ही सुन्दर प्रश्न है, जो मुझसे पूछा गया है । प्रत्येक पर्व का जब विश्लेषण किया जाता है, तो उसका मूल स्वरूप उसमें से ही निकल आता है । दीपावली पर्व की पृष्ठभूमि को समझने के लिए, हमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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