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________________ १४४ | अपरिग्रह दर्शन गई है । बर्बर अत्याचार हो रहा हो, दमन चक्र चल रहा हो, बेगुनाहों का कत्लेआम हो रहा हो, और हम अहिंसावादी चुपचाप यह सब सहन करते जाएँ, कि हम कितने साधु पुरुष हैं, कितने क्षमा-शील, संयमी हैं ? अन्याय एवं अत्याचार : आज अहिंसा, अन्याय एवं अत्याचार के विरोध में अपनी प्रचण्ड प्रतीकार शक्ति खो चुकी है। अहिया, हिंसा को केवल सहन करने से लिए में नहीं है । उसे हिंसा पर प्रत्याक्रमण करना चाहिए। गाँधीजी के युग ऐसा कुछ हुआ था, परन्तु जल्दी ही अहिंसा के इस ज्वलन्त रूप पर पाला पड़ गया, और अहिंसा ठण्डी हो गयी । आज अहिंसा ठंडी हो गई है । आज के अहिंसावादी धर्मगुरु, अपने लाखों अनुनायी होने का दावा करते हैं, यदि सामूहिक रूप में अहिंसात्मक प्रतिकार के लिए ये लोग बांगला देश की सीमाएं पार करें, और नंगी संगीनों के सामने छातियाँ खोलकर खड़े हो जाए, तो पाकिस्तान तो क्या, सारा विश्व हिल उठेगा। जब विश्व की ओर से उक्त हजारों लाखों बलिदानियों को लेकर पाकिस्तान पर सामूहिक नैतिक आक्रमण होगा, तो पाकिस्तान का दम्भ टूट जाएगा। पर, ऐसा नैतिक साहस है कहाँ, आज अहिंसावादियों में ? साग-सब्जी और कीड़े मकोड़े की नाममात्र की अहिंसा करके हो आज के ये तथाकथित अहिंसा वादी सन्तुष्ट हैं । और अहिंसा की यह निर्माल्य प्रक्रिया अहिंसा के दिव्य तेज को धूमिल कर रही है। यदि आपकी अहिंसा विश्व के जघन्य हत्याकांडों का वस्तुतः कोई प्रतीकार नहीं कर सकती, तो फिर अहिंसा का दम्भ क्यों ? फिर तो क्यों नहीं, यह स्पष्ट घोषणा कर देते, कि हिंसा का उत्तर हिंसा हीं है, अहिंसा नहीं । पर इतना भी साहस कहाँ है ? प्रत्यक्ष अहिंसक प्रत्याक्रमण की बात छोड़िए. आज तो ये मेरे धर्म गुरु साथी मौखिक विरोध भी नहीं कर रहे हैं। हजारों की सभा में उपदेश होते है, वही घिसे-पिटे शब्द, जिसमें कुछ भी तो प्राण नहीं । वर्तमान की समस्याओं को छूते तक नहीं । समग्र उपदेश जीवन के पार मृत्यु के दायरे में जा रहा है । इनके स्वर्ग और मुक्ति मरने पर है, जीते जी नहीं । होना तो यह चाहिए था, कि हजारों धर्मगुरु प्रतिदिन के प्रवचनों में बांगला देश के जातीय विनाश के सम्बन्ध में खुलकर बोलते, हिंसा के विरोध में वातावरण तैयार करते। कम से कम इतना तो हो सकता था, पर, देखते है, इतना भी कहाँ हुआ ? जैन भवन मोतोकटरा, आगरा सितम्बर, १९७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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