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________________ १३६ / अपरिग्रह-दर्शन कूणिक की इस मूर्खता पर देव हंसा और तरस खा कर बोला“राजन् लौट जाओ। तुम गलत महत्वाकांक्षाओं के तूफान में भटक गए हो । उचित-अनुचित का विवेक खो बैठे हो। इस युग के बारह चक्रवर्ती हो चुके हैं। अब तुम कौन से चक्रवर्ती हो? किस युग के हो ?" कणिक का अहंकार प्रदीप्त हो गया। बोला --''मैं चक्रबर्ती होने जा रहा है। क्या हुआ, जो बारह हो गए, तेरहवाँ क्यों नहीं हो सकता ? यदि किसी की भजाओं में बल है, तो उसे कौन रोक सकता है ? देखो, मेरे पास भी चौदह रत्न हैं, विशाल-वाहिनी है, बड़े-बड़े मुकुट-धारो राजा लोग मेरी सेवा में खड़े हैं, मैं चक्रवती क्यों नहीं हो सकता? मैं चक्रवर्ती है, हटो परे । मेरा पथ छोड़ दो। देव ने देखा --कैसा जिद्दी है यह । कितना महत्वाकांक्षी है। उसने फिर समझाया । पर, आदमो महत्वाकांक्षाओं के तूफान में भटक जाने के बाद जल्दी संभल नहीं सकता। कणिक ने देवता को चनौती दी। इसका यह परिणाम हुआ, कि कणिक वहीं ढेर हो गया। कणिक को आत्मा ने शरीर छोड़ा, नरक की राह पकड़ी। अपने ही हाथों अपना सर्व-नाश कर डाला---उस इच्छा और अहंकार के पुतले ने । अहंता और ममता -दोनों विकास में बाधक हैं, सर्व-नाश की ओर ले जाते हैं। कूणिक हमारे सामने आज नहीं है, रावण भो नहीं है, जरासंध और दुर्योधन भी नहीं है, किन्तु देखना है, उनको वासनाएं, इच्छाएँ और अहं. कार आज हमारे में हैं या नहीं। ___ मनुष्य-जीवन में जो कुछ भो प्रयत्न करता है, वह सुखभोग के लिए करता है, आनन्द के लिए करता है । किन्तु वह आनन्द कब मिल सकता है ? जब मन में आनन्द हो। जिस प्रकार वस्तु परिग्रह नहीं है, उसो प्रकार वस्तु आनन्द भी नहीं है । न साम्राज्य में आनन्द है, और न वैभव में । ये सब तो जड़ हैं, आनन्द चैतन्य है। उपनिषद् के ऋषि ने कहा है-'आनन्दो ब्रह्मति व्यजामात्' आनन्द हो ब्रह्म है, यह आनन्द ही जीवन का परम लक्ष्य है। वह चैतन्य है । अतः इसका निष्कर्ष यह हुआ, कि आनद प्राप्ति के लिए इच्छाओं के पीछे भटकने की जरूरत नहीं है। इच्छाओं पर नियन्त्रण करने की जरूरत है। जीवन में अब तक क्या मिला है, और क्या प्राप्त करना शेष है । इस चक्कर में मत फँसो । भगवान महावीर ने कहा है-इमं च में अत्थि, इमं च नत्थि।' यह मेरे पास है, यह नहीं है। इस भंवरजाल में जो आदमी फंसा, वह डूब गया मंझधार में । सुख और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003415
Book TitleAparigraha Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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