________________
१३४ | अपरिग्रह-दर्शन
रह गण राजाओं के साथ युद्ध भूमि में आ डटा । चेटक अहिंसा प्रेमी श्रावक था वह युद्ध - प्रिय नहीं था । किन्तु जब कर्त्तव्य का प्रश्न सामने आ खड़ा हुआ, तो उसे युद्ध की चुनौती स्वीकार करनी पड़ी । अन्याय को सहन करना भी तो अन्याय है । उसका क्षात्र तेज इस प्रकार के अन्याय को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता था । इसलिए अभ्याय के प्रतिकार के लिए उसे युद्ध करना पड़ा। युद्ध में भी उसने न्याय, नीति और प्रतिज्ञा को नहीं भुलाया । चेटक की प्रतिज्ञा थी, कि केवल आक्रांता, अन्यायी पर ही अपना शस्त्र प्रहार करेगा, निरपराध अनाक्रांता पर नहीं । युद्ध नोति के ये मानat बन्धन ही तो उसे धर्म-युद्ध को संज्ञा देत थे । धर्म-युद्ध का अर्थ है, कर्तव्य -वश युद्ध करना ।
वैशाली की भूमि पर भयंकर नर-संहार का दृश्य उपस्थित हो गया । चेटक का एक-एक बाण दश दिन में काली कुमार आदि दशों भाइयों के नरमुंड से खेल गया । कूणिक के भी पांव के नीचे से धरती खिसकने लगी । पूर्व भव के मित्र शक्रेन्द्र और चमरेन्द्र ने कूणिक को समझाया "चेटक के सामने तुम्हारी विजय कठिन है, और फिर न्याय भी तो तुम्हारे साथ नहीं है । व्यर्थं का यह अपना आग्रह छोड़ दो ।" किन्तु कूणिक ने एक नहीं मानी । आग्रह से तो विग्रह को ही आग भड़कती है। उसने कहा"मुझे उपदेश नहीं चाहिए, सहायता चाहिए। तुम इस युद्ध में मेरी सहायता करो, विजय तो मेरो भुजाओं में है ।" कूणिक अपने हठ पर अड़ा रहा । युद्ध में इतना भयंकर नर-संहार हुआ, कि जिसको स्मृति से अब भी हृदय कांप उठता है । रणभूमि मानव रक्त से लाल हो उठी । युद्ध भूमि श्मशान भूमि में बदल गई। कहानी बहुत लम्बी है, पर आप समझिए, कि इतने भयंकर नर-संहार और छलन के आखिरी प्रयत्नों के बाद भी कूणिक के हाथ क्या लगा ? ध्वस्त वैशालो, लाशों के ढेर । यह विजय, पराजय से भी अधिक भयंकर थी । अधिक गर्हित, और अधिक परितापमय । प्राचीन इतिहास में महाभारत के बाद इतने बड़े भयंकर नर-संहार की दूसरी घटना नहीं मिलती । इसके मूल में क्या था ? एक अनियन्त्रित इच्छा, एक उद्दाम लालसा, जिसका जीवन के लिए कोई महत्व नहीं था, आवश्यकता नहीं थी । विचार कीजिए, कणिक के साम्राज्य में हाथियों की कमी थी क्या । उसके अलकार गृह में हारों की कमी थी क्या ? फिर युद्ध किसलिए हुआ ? हार और हाथी एक स्थूल चीज थी। वास्तव में युद्ध उसकी नग्न इच्छाओं का प्रतिफल ही था । अनावश्यक कामनाओं का यह द्वन्द्व लाखों-करोड़ों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org