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आसक्ति : परिग्रह ६५
मैंने सोचा इसने बड़ा सुन्दर सिद्धान्त बना लिया है।
महेन्द्रगढ़ (पटियाला) में एक धनी मानी वेदान्ती सज्जन हमारे परिचय में आए। वे वेदान्त और जैनदर्शन आदि की चर्चाएँ किया करते थे। पहले तो साधुओं के पास उनका आना-जाना नहीं था, किन्तु हम पहुँचे तो वह आने लगे। उनके इकलौता लड़का था, और वे गांव के मालिक थे। उस एक लड़के पर ही उनका सारा दारोमदार था । वह लड़का बीमार पड़ा, तो वह उसका इलाज कराने के लिए बम्बई और कलकत्ता आदि कई जगह गए । पानी की तरह रुपया बहाया। यह हाल देख लोग टीका-टिप्पणी करने लगे। कहने लगे--- वेदान्त जी, क्या यही वेदान्त का स्वरूप है ? मैंने उनसे कहा-भाई, संसार में बैठे हैं, तो कर्तव्य करना ही पड़ता है । कोई अपने लड़के को यों ही कैसे मर जाने देगा? यह तो संसार का व्यवहार है।
__ आखिर, लड़का बच नहीं सका। बहुत प्रयत्न करने पर भी मर गया । वेदान्ती बड़े आदमी थे। गांव वाले उनके यहां पहुँचे और बड़ा गमगीन चेहरा बनाकर पहुँचे । बोले-पण्डितजी, बड़ा अनर्थ हो गया। आपके साथ बहुत बुरी बीती । एक ही लड़का था और वह भी नहीं रहा।
___ इस प्रकार सान्त्वना देने वाले उन्हें रंज पैदा करने लगे, किन्तु वह स्वयं उन्हें सान्त्वना देने लगे-- भया ! हो क्या गया, जब तक उसका हमारे साथ सम्बन्ध था, रहा, और जब सम्बन्ध टुटा, तो टूट गया। जो होना था, हो गया । आदमी क्या करे ? आदमी के हाथ में है क्या ? जब तक हमारे पास था, सब कुछ किया। बचाने की कोशिश की। कुछ उठा नहीं रखा। इतने पर भी हाथ से निकल गया तो रोने से क्या होगा?
और, आश्चर्य के साथ लोगों ने देखा, कि उनकी आंखों से एक भी आंसू नहीं निकला। इसी का नाम, अनासक्त-योग।
आगरा के रतनलालजी को हम जानते हैं। उनका एक बड़ा होनहार लड़का था, कालेज में पढ़ता था। एक दिन वह यमुना में तैरने गया। छलांग लगाई, और तैरता रहा । न मालूम क्या हुआ, कि तैरते-तैरते डब गया। खबर लगी, और निकाल कर घर लाया गया। उस समय उसकी मामूली-सी सांस चल रही थी। तो आशा के बल पर हजारों रुपये खर्च कर दिए गए, यह सोचकर कि शायद लड़का बच जाए। उस समय वे बढ़े
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