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४ । अपरिग्रह-दर्शन
किसी के पास वस्तु नहीं है, किन्तु वस्तु की इच्छा है, लालसा है, और उसको प्राप्त करने के लिए गम्भीर भाव से तमन्नाएं जाग रही हैं, तो समझ लीजिए कि वह परिग्रह के दल-दल में फँसा हुआ है । परिग्रह-विमुक्त नहीं है ।
एक बार हम एक गांव में पहुँचे। वहां हमारे प्रति कोई श्रद्धालु नहीं था । अतएव हमें ठहरने के लिए गांव में कोई जगह नहीं मिली । बड़ी मुश्किल से एक टूटा-फूटा शिवालय का खंडहर मिला और उसमें हम ठहर गए। वहां चार यात्री और भी पड़े हुए थे । हम शाम को पहुँचे थे और वे पहले से ठहरे हुए थे 1 वहीं जो ठहरे हुए थे, उनमें से दो एक ही स्थान के थे, और वे किसी काम से बाहर गए थे। उनमें से एक पहले आ गया और आकर उसने देखा कि कोई उसकी चोजें उठा ले गया है । आते ही उसकी निगाह अपनी चीजों पर पड़ी, और जब चीजें दिखाई न दीं तो वह समझ गया कि कोई उठा ले गया है; वह एकदम बड़ा निराश और हताश हो और गांव वालों को हजार-हजार गालियाँ देने लगा । कहने लगादेना तो दूर रहा, उलटा हमारा ही सामान उड़ा ले गए। बड़े दुष्ट हैं, इस गाँव वाले !
गया,
वह रंज में तो था ही, जब उसका साथी आया, तो उसे देखकर उसका रंज और बढ़ गया, और वह रोने लगा । उसने कहा - इस गांव में आकर तो तकदीर हो फूट गई ! कोई पापी कपड़े-लत्त े, बर्तन- भांड़े सब उड़ा ले गया । अब क्या होगा ?
उसके नये आये साथी ने कहा- वही आदमी, जो यहां बैठा हुआ था, ले गया होगा । पर उसका पता लगना कठिन है। कौन जाने वह कौन था, और कहाँ गया है ? खैर होगा कोई ! सामान ले गया तो ले गया, भाग्य तो नहीं ले गया । इस प्रकार कहकर उसने अपने शोक-ग्रस्त साथी को सान्त्वना दी।
यह बात-चीत मैंने सुनी और सोचा सामान दोनों का था, मगर उसके चोरी में चले जाने पर एक रोता है और दूसरा उसे सान्त्वना देता है । हानि दोनों की समान हुई है, किन्तु एक व्यथित हो रहा है, और दूसरा कहता है- हमारा भाग्य तो नहीं चला गया है, चोर, चोर ही रहेगा, एवं साहूकार, साहूकार ही रहेगा । यह कहते हुए वह मुस्करा रहा है !
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