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________________ महोपाध्यायजयसागरकृता नगर को ट चैत्य परिपाटी। मुझ मनि लागिय खंति जालंधर देसह भणिय । तीरथ वंदण रेसि नगरकोटि तउ आवियउ ॥१॥ बाणगंगा पातालगंग व्याह नइ जसु तडिहिं । वणराई घण घाट वाट ति घाटिहिं आगलिय ॥२॥ तहिं महिमाभंडार पहिलडं पहिलइ जिणभवणिं । दीठउ संतिजिणिंद नयण अमियरस पारणउं॥३॥ जिणहरि बीजइ रीजु मनि अधिकेरउं ऊपजए । जहि सोवनमय बिंब रूपचंद रायह तणउं ॥४॥ जिणि दीठइ संतोसु मण आणंदिहिं ऊससए । अंधारइ उद्योत जयउ सु जगगुरु वीरवरु ॥५॥ जइ त्रीजइ प्रासादि सरवरि राजमराल जिम । संभाविउ रिसहेसु चंपकि चंदनि थुति जलिहिं ॥६॥ हिव चडियउ चमकंत अति ऊंचइ गढि कांगडए । इहु जाणे मइ किदु सिद्धिसिला आरोहणउ ॥७॥ 1" अल जउ अंगि न माइ माइ ताय घरु वीसरिय । सरिय सयल मह कज्ज तहिं रिसहेसर दंसणिहिं ॥८॥ जो हीमालय हुंत राय सुसम्मिहिं जाणियउ । नेमिसरि जयवंति कंगड कोटिहिं आणियउ ॥ ९॥ चंद्रवंसि जे राय राणा जसु पयतलि लुलइ । अंबिकदेवि पसाइ तहिं मनवंछित फल मिलई ॥१०॥ भासकंचणमय कलसिहिं सहिय ए च्यारइ प्रासाद, च्यारइ चिहुं वरणिहिं नमिय च्यारइ हरइं विषाद । गोपाचलपुर सिरिमउड संतिनाह जगसामि, कामियफल कारणि रसिय लीणउ छउ तसु नामि ॥११॥ नंदवणिहिं नंदउ सुचिरु चरमजिणेसर चंद, जगचकोरु जसु दंसणिहिं पामइ परमाणंद ।। पास पसंसउ कोटिलए गामिहिं महि अभिरामि, मह मन कोइलि जिम रमउ तस गुण अंबारामि ॥१२॥ हेमकुंभ सिरि जिणभवणि ए सवि थुणिया देव, देवालइ कोठिनयरि करउं वीरजिण सेव । दुक्खह दिन्नु जलंजलिय सुखह लद्ध पसारु, तीरथ पंचइ जइ नमिय पामिय मोख दुयार ॥ १३॥ मंगल तीरथ पंथियह मंगल तीरथ पंथ, ज सुखेहिं किर मई कलिय मुकतिनारिसीमंथ। नारि अच्छइ घरि घरि घणिय जणणी सा परु धन्न, जासु कुक्खि उप्पन्न नरु संचइ तीरथपुन्नु ॥१४॥ इय जयसायर समरिय ताय, सवालखपव्वय जिणराय । ता अम्हारिय पूगी आस, हउं बोललं जिणसासण दास ॥१५॥ इणि समरणि नासइ नरगजोग, इणि समरणि लाभइ सरग भोग । इणि कारणि तुम्हि भो भविय आज, इहु पभणहु, निसुणहु, सरई काज ॥ १६ ॥ इय नगरकोट पमुक्ख ठाणिहिं जे य जिण मई वंदिया, ते वीर लउकड देवि जालामुखिय मन्नइ वंदिया । अन्नवि जे केवि सग्गि महियलि नागलोइहि संठिया, करजोडि ते सवि अज्ज वंदउं फुरउ रिद्धि अचिंतिया ॥ १७ ॥ ॥ इति श्रीनगरकोट्टमहातीर्थचैत्यपरिपाटी ॥ ॥ कृतिरियं श्रीजयसागरोपाध्यायानाम् ॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003412
Book TitleVignapti Lekh Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherSinghi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
Publication Year1960
Total Pages238
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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