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प्रस्तावना
अधिक समृद्ध रहा है। आज भी इस भण्डारकी महत्ता और प्रतिष्ठा कम नहीं हुई है । अतः भारतके प्रत्येक विकासोन्मुख और संस्काराभिलाषी मनुष्यके लिये संस्कृत भाषाका ज्ञान प्राप्त करना परापूर्व कालसे, परम कर्तव्यरूप माना गया है । अन्य किसी प्रकारके विशेष ज्ञानके लिये न सही, पर, केवल वाणीकी शुद्धिके लिये - जिह्वाके सुसंस्कारके लिये-सुशब्द और कुशब्दका भेद समझनेके लिये ही, संस्कृत भाषाका अल्पस्वल्प भी परिचय प्राप्त करना परम आवश्यक माना गया है । इसी लिये हमारे पूर्वज यह एक अमूल्य शिक्षासूत्र बना गये हैं कि
__ यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम् ।
मा भूत् स्वजनः श्वजनः, स्वराज्यमपि च श्वराज्यं यत् ॥ हमारे पूर्वज हमें कह रहे हैं कि-हे पुत्रो ! यदि तुम कुछ अधिक न पढ सको, तो खैर, पर थोडा सा व्याकरण तो अवश्य ही पढना, जिससे तुम 'स्वजन'को 'श्वजन' और 'स्वराज्य' को 'श्वराज्य' कह कर अपशब्दभाषी मूर्ख नर बनने से बच सको ।' जिनको थोडा सा भी शुद्ध भाषा ज्ञानका परिचय होगा, वे इस कथनके मर्मको ठीक समझ ही गये होंगे ।
इस प्रकार वाणीकी शुद्धि एवं ज्ञानकी वृद्धिके निमित्त संस्कृत भाषाका स्वल्पज्ञान प्राप्त करना भी परम हितावह है । इसी हितको उद्देश्य करके पूर्वकालीन विद्वानोंने प्रस्तुत कृतिके समान सामान्य मुग्धजनोंके बोधके लिये अपनी रचनाएं की हैं
'उक्तीनां संग्रहं वक्ष्ये स्वान्ययोहितहेतवे।' उपर हमने सूचित किया है कि हमारी देश्य भाषाओं में हजारों ही मूल संस्कृत शब्दोंके, देश एवं काल आदिकी भिन्न भिन्न परिस्थितियोंके कारण, विचित्र रूषान्तर हो गये हैं। कुछके अक्षर बदल गये, कुछके अर्थ बदल गये और कुछके उच्चार ध्वनि ही बदल गये हैं। ऐसे रूपान्तरित देश्य शब्दोंके संस्कृत प्रतिरूप क्या हैं, मुख्य तया यही प्रदर्शित करनेके लिये साधुसुन्दर गणीने इस रचनामें प्रयत्न किया है । जैसा कि हमने उपर सूचित किया है ग्रन्थकार प्रायः राजस्थान निवासी हैं अतः इन शब्दोंमें राजस्थान एवं उसके समीपवर्ति गुजरात, सौराष्ट्र, मालवा, सिंध, पंजाब आदि प्रदेशोंमें प्रचलित देश्य शब्दोंका अधिक संग्रह होना स्वाभाविक ही है । पर इनमें सेंकडों शब्द ऐसे भी मिलेंगे जो सुदूर पूर्वके एवं दक्षिणके देशोंमें भी प्रचलित होंगे । अतः हम आशा करते हैं कि यह संग्रह, भारतकी प्रादेशिक भाषाओंके तुलनात्मक अध्ययन करने वालोंकी दृष्टिसे, तथा राष्ट्र भाषाके पद पर प्रतिष्ठित नूतन भारतकी राष्ट्र-भारती हिन्दीके विकास एवं विस्तारके ज्ञानकी दृष्टिसे भी उपयोगी सिद्ध होगा। भारतीय विद्याभवन, बंबई ।
मुनि जिन विजय ता. १-२-५७
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