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________________ उक्तिरत्नाकर है। जिन व्यक्तियोंको संस्कृत एवं प्राकृत भाषा-साहित्यका विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करना अपेक्षित होता है वे तो इन भाषाओंके व्याकरण ग्रंथोंका यथायोग्य अध्ययन द्वारा ही उसे प्राप्त करनेका प्रयत्न करते रहते हैं। पर जो व्यक्ति सामान्य रूपसे, देश्य भाषा और संस्कृत भाषाका, व्याकरणकी दृष्टिसे परस्पर कितना साम्य है और कितना विभेद है; तथा जो शब्द देश्य रूपमें लोकप्रचलित हो कर, संस्कृत रूपसे भिन्नाकार दिखाई देते हैं, उनका संस्कृत प्रतिरूप कैसा होता है - यह बात जानना चाहते हैं उनके लिये, संक्षेपमें कुछ अवबोध करने करानेकी दृष्टिसे, पूर्व कालीन विद्वानोंने औक्तिक संज्ञावाले ग्रन्थों- प्रकरणोंकी फुटकर रचनाएं की हैं। ___ इन रचनाओंमें सबसे प्राचीन कृति जो हमें उपलब्ध हुई है, वह उक्त सिंघी जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित 'उक्तिव्यक्ति प्रकरण' है। हमारे मतानुसार विक्रमकी १२ वीं शताब्दीके अन्त भागमें उसकी रचना हुई होगी। उस ग्रन्थका कर्ता दामोदर पण्डित उत्तर प्रदेशके बनारस नगरका रहने वाला था। उसने बनारसके बाल विद्यार्थियोंको, अपने समयमें प्रचलित बनारसकी देश्य भाषाका अर्थात् तत्कालीन जनपदीय भाषाका, व्याकरणकी दृष्टिसे संस्कृत भाषाके साथ कैसा संबन्ध है और किस प्रकार देश्य शब्दोंका संस्कार करनेसे संस्कृतका शुद्ध रूप बनता है - यह बतानेके लिये, उस ग्रन्थकी रचना की है। बनारसकी गणना उस समय कोशल देशकी राजधानीके रूपमें होती थी; अतः विद्वानोंने वहांकी लोकभाषाका नाम कोशली रखना उचित समझा है । उस ग्रन्थ की प्रस्तावनामें इस विषयके बारेमें हमने जो उल्लेख किया है, उसे यहां संबन्धित समझ कर, उद्धत किया जाता है ___"इस ग्रन्थमें इस प्रकार केवल प्राचीन कोशली भाषाका नमूना ही हमें नहीं मिल रहा है - परंतु उसके साथ, व्याकरण शास्त्र विषयक कई अन्य महत्त्वकी बातोंका भी इसमें उल्लेख है। ग्रन्थकार इसमें प्रयुक्त देश भाषाका कोई विशिष्ट नाम निर्देश नहीं करता है। वह इसे केवल, सामान्य रूपसे 'अपभ्रंश' के नामसे उल्लिखित करता है। उस समय, संस्कृत एवं प्रौढ प्राकृतके सिवा लोकव्यवहारकी प्रचलित देशभाषाके लिये विद्वान् जन अपभ्रंश नामका व्यवहार करते थे। अपने समयमें- अपने देशमें प्रचलित, लोकव्यवहृत अपभ्रंश भाषाका, संस्कृत व्याकरणकी पद्धतिसे किस प्रकारका संबन्ध है और किस प्रकार लोकभाषाके लोकरूढ उक्तियों= शब्दप्रयोगो द्वारा संस्कृतके व्याकरणका आधारभूत स्थूल ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है - इसका विचार पण्डित दामोदरने इस ग्रन्थमें निबद्ध किया है। इसमें प्रयुक्त 'उक्ति' शब्दका अर्थ है 'लोकोक्ति' अर्थात् लोकव्यवहार में प्रयुक्त भाषापद्धति; जिसे हम हिन्दीमें 'बोली' कह सकते हैं। लोकभाषात्मक 'उक्ति'की जो 'व्यक्ति' अर्थात् व्यक्तता स्पष्टीकरण - तत्संबन्धी विचारका विवेचन - इस ग्रन्थमें किया गया है अतः इसका नाम 'उक्तिव्यक्तिशास्त्र' रखा गया है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003411
Book TitleUktiratnakara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherRajasthan Puratattvanveshan Mandir
Publication Year1957
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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