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अतः यह कहा जा सकता है कि समस्त तत्त्वों में मुख्य तत्त्व जीव है, द्रव्यों में मुख्य द्रव्य जीव है। और पदार्थों में प्रधान पदार्थ जीव ही है। इस अनन्त सृष्टि का अधिनायकत्व जो जीव को मिला है, उसका मुख्य कारण, उसका ज्ञान गुण ही है। ज्ञान होने के कारण ही यह ज्ञाता है और शेष संसार ज्ञेय है । जीव उपभोक्ता है और शेष समग्र संसार उसका उपभोग्य है । ज्ञाता है, तभी ज्ञेय की सार्थकता है । उपभोक्ता है, तभी उपभोग्य की सफलता है । इस अनन्त विश्व में जीवात्मा अपने शुभ या अशुभ कर्म करने में स्वतन्त्र हैं। वह पाप भी कर सकता है और पुण्य भी कर सकता है। वह अच्छा भी कर सकता है और बुरा भी कर सकता है । पाप करके वह नरक में जा सकता है, पुण्य करके वह स्वर्ग में जा सकता है तथा संवर एवं निर्जरा रूप धर्म की साधना करके, वह मोक्ष में भी जा सकता है। मोक्ष प्रथवा मुक्ति जीव की ही होती है, अजीव की नहीं । जब अजीव शब्द का उच्चारण करते हैं, तो उसमें भी मुख्य रूप से जीव की ध्वनि ही ध्वनित होती है। क्योंकि जीव का विपरीत भाव ही तो प्रजीव है । कुछ लोग तर्क करते हैं कि जीव से पहले अजीव को क्यों नहीं रखा ? यदि सात तत्त्वों में, षड् द्रव्यों में और नव पदार्थों में पहले जीव को न कहकर, अजीव का ही उल्लेख किया जाता, तो क्या आपत्ति थी ? सबसे पहले हमारी अनुभूति का विषय यह जड़ पदार्थ ही बनता है । यह शरीर भी जड़ है, इन्द्रियाँ भी जड़ हैं और मन भी जड़ है । जीवन की प्रत्येक क्रिया जड़ एवं पुद्गल पर ही आधारित है, फिर जीव से पूर्व प्रजीव को क्यों नहीं रखा ?
आपने देखा कि कुछ लोग अजीव की प्रमुखता के समर्थन में किस प्रकार तर्क करते हैं ? मेरा उन लोगों से एक ही प्रतिप्रश्न है, एक ही प्रतितर्क है ? यदि इस तन में से चेतन को निकाल दें, तो इस शरीर की क्या स्थिति रहेगी ? चेतन-हीन और जीव विहीन शरीर को आप लोग शव कहते हैं। याद रखिए, जीव रूप शिव के सम्बन्ध से ही, देह रूप शव का स्वरूप बना हुआ है। यदि सात तत्त्वों में अथवा नव पदार्थों में जीव से पहले अजीव को रख दिया गया होता, तो यह इन्सान के दिमाग का दिवालियापन ही होता । और तो क्या, मोक्ष की बात कभी पहले नहीं रखा, सबसे अन्त में रखा है। सबका राजा तो आत्मा ही है, उसी के लिए यह सब कुछ है, उसकी सत्ता से ही अजीव की सार्थकता है । पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, संवर और निर्जरा स्वतन्त्र कहाँ हैं । जीव की ही अवस्था विशेष हैं, ये सब । मोक्ष भी जीव की ही अवस्था है, और मोक्ष के हेतु संवर मोर निर्जरा भी जीव के ही स्वरूप हैं । बन्ध और मोक्ष जीव के प्रभाव किसको प्राप्त होंगे ? अतः संसार में जीव की ही प्रधानता है ।
संस्कृत भाषा में जिसे आत्मा कहते हैं, हिन्दी भाषा का 'प्राप' शब्द उसी का अपभ्रंश है । मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि श्रात्मा से ही प्राकृत का अप्पा और अप्पा से हिन्दी का 'आप' बना है । आप और आत्मा दोनों का अर्थ एक ही है। आत्मा की बात अपनी बात है और अपनी बात आत्मा की बात है । यही जीवन का मूल तत्व है, जिस पर जीवन की समस्त क्रियाएँ आधारित हैं। जब तक यह शरीर में विद्यमान रहता है, तभी तक शरीर क्रिया करता है। शुभ क्रिया अथवा अशुभ क्रिया का आधार जीव ही है । जीवन के प्रभाव में न शुभ क्रिया
सकती है और अशुभ क्रिया हो सकती है । मन, वचन और शरीर की जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका आधार जीव ही तो है । यदि आत्म-तत्त्व न हो, तो फिर इस विश्व में कोई भी व्यवस्था न रहे। विश्व की व्यवस्था का मुख्य आधार जीव ही है ।
जीवन में तब तक ही मन, वचन, शरीर, इन्द्रियाँ आदि अपना-अपना कार्य करते हैं, जब तक चेतन इनमें अधिष्ठित है। चेतन के निकलते ही सब का काम एक साथ और एकदम बन्द हो जाता है ।
मा की दृष्टि से आत्मा इस संसार में रानी मधुमक्खी है। जब तक वह इस देह रूप छत्ते पर बैठी होती है, तब तक ही, मन, वचन, शरीर, इन्द्रियाँ आदि रूप अन्य कर्मकर मधुमक्खियों का तथा पुण्य, पाप, शुभ एवं अशुभ आदि का व्यापार चलता रहता है। यह आत्मारूपी रानी मधुमक्खी जब अपना छत्ता छोड़ देती है, तो इस जीवन की शेष समस्त क्रियाएँ स्वतः बन्द हो जाती हैं, उन्हें किसी बाह्य कारण से बन्द करने की जरूरत नहीं रहती ।
बंध- मोक्खो तुझ अज्झत्थेव
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