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________________ लक्ष्य है। इस समग्र संसार में जो कुछ भी ज्ञात एवं अज्ञात है, उस सबका चक्रवर्ती एवं अधिष्ठाता, यह प्रात्मा ही है। प्रात्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य दूसरे तत्त्व या पदार्थ हैं, वे सब उसके सेवक या दास है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ये पाँचों द्रव्य जीव के सेवक और दास हैं। इनको इतना भी अधिकार नहीं है कि वे जीव रूपी राजा की प्राज्ञा में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित कर सकें। जीव रूपी राजा को धर्मास्तिकाय सेवक यह आदेश नहीं दे सकता कि चलो, जल्दी करो। अधर्मास्तिकाय सेवक उस राजा को यह नहीं कह सकता कि जरा ठहर जाओ। आकाशास्तिकाय यह नहीं कह सकता कि यहाँ ठहरिए और यहाँ नहीं। पुद्गलास्तिकाय सदा उसके उपभोग के लिए तैयार खड़ा रहता है। काल भी उसकी पर्याय-परिवर्तन के लिए प्रतिक्षण तैयार रहता है। ये सब जीव के प्रेरक नहीं, मात्र उदासीन और तटस्थ हेतु ही होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं, कि सात तत्त्वों में, षडद्रव्यों में और नव पदार्थों में सबसे मुख्य और सबसे प्रधान जीव ही है। इसी आधार पर जीव को चक्रवर्ती और अधिष्ठाता कहा जाता है। एक बात और है, हम जीव को अपनी अलंकृत भाषा में भले ही चक्रवर्ती कह लें, वस्तुतः वह चक्रवर्ती से भी महान् है, क्योंकि चक्रवर्ती केवल सीमित क्षेत्र का ही अधिपति होता है । सीमा के बाहर एक अणुमात्र पर भी उसका अधिकार नहीं होता और न ही उसका शासन चल सकता है। परन्तु जीव में वह शक्ति है कि जब वह केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है एवं अरहन्त बन जाता है, तब वह त्रिलोकनाथ और त्रिलोक-पूजित हो जाता है। त्रिलोक के समक्ष चक्रवर्ती के छह खण्ड का विशाल राज्य भी महासिन्धु में मात्र एक बिन्दु के समान ही होता है। चक्रवर्ती को चक्रवर्ती का उत्तराधिकार या किसी अन्य रूप में अन्य कोई व्यक्ति नहीं बनाता है, वह अपनी निज की शक्ति से ही चक्रवर्ती बनता है। इसी प्रकार इस आत्मा को भी त्रिलोकनाथ और त्रिलोकयूजित बनानेवाली अन्य कोई शक्ति नहीं है, अात्मा स्वयं अपनी शक्ति से ही, तीन लोक का नाथ और तीन लोक का पूज्य बन जाता है। प्रात्मा को परमात्मा बनाने वाला अन्य कोई नहीं होता, बल्कि स्वयं आत्मा ही अपने विकल्प और विकारों को नष्ट करके, आत्मा से परमात्मा बन जाता है। आप इस बात को जानते ही हैं कि सिंह को वन-राज कहा जाता है। वन-राज का अर्थ है--वन' का राजा, वन का सम्राट और वन का चक्रवर्ती। मैं आपसे पूछता हूँ कि आखिर उस सिंह को वन का राजा किसने बनाया ? कौन ऐसा पशु एवं पक्षी है, जो आगे बढ़कर उसका राज्याभिषेक करता है। स्पष्ट है कि सिंह को वन का राज्य दिया नहीं जाता, बल्कि वह स्वयं अपनी शक्ति से उसको प्राप्त करता है। यहाँ पर भी यही बात सत्य है कि इस जीव को त्रिलोक का नाथ दूसरा कोई बनानेवाला नहीं है, यह स्वयं ही अपनी शक्ति से तीन लोक का नाथ बन जाता है। जैसे राजा के सेवक' सदा राजा के आदेश का पालन करने के लिए तत्पर खड़े रहते हैं, वैसे ही जीव रूपी राजा के ग्रादेश का पालन करने के लिए, य द्रव्य. अन्य तत्त्व और अन्य पदार्थ सदा तत्पर खडे रहते हैं। किसी में यह शक्ति नहीं है कि उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे चला सके, ठहरा सके अथवा अन्य कोई कार्य करा सके। जब उसकी इच्छा होती है, वह चलता है, जब उसकी इच्छा होती है, तब वह ठहरता है, जब उसकी इच्छा होती है, तभी वह अपना अन्य कोई कार्य संपादन करता है। अन्य पदार्थ तो केवल उसकी आज्ञा-पालन में तैयार खड़े रहते हैं। कुछ भी करनेवाला और कुछ भी न करनेवाला तो स्वयं जीव ही है। अन्य पदार्थ उसके कार्य में अथवा क्रियाकलाप में निमित्तमात्र ही रहते हैं। और, निमित्त भी प्रेरक नहीं, केवल उदासीन ही। यह जड़ शरीर और इसके अन्दर रहने वाली ये इन्द्रियाँ और मन भी तभी तक कार्य करते हैं, जब तक जीव रूपी राजा इस शरीर रूपी प्रासाद में रहता है। उसकी सत्ता पर ही इस संसार के सारे खेल चलते हैं। इस जड़ात्मक जगत् का अधिष्ठाता और चक्रवर्ती यह जीव जब तक इस देह में है, तभी तक यह देह हरकत करती है, इन्द्रियाँ अपनी प्रवृत्ति करती है और मन अपना काम करता है। इस तन में से जब चेतन जीव निकल जाता है, तब तन, मन और इन्द्रियाँ सब निरर्थक हो जाते हैं। ८४ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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