________________
अरहन्त भगवान् का स्वरूप :
भारतवर्ष के दार्शनिक एवं धार्मिक साहित्य में भगवान् शब्द, बड़ा ही उच्चकोटि का भावपूर्ण शब्द माना जाता है। इसके मूल में एक विशिष्ट भाव- राशि स्थित है । 'भगवान्' शब्द 'भग' शब्द से बना है । अतः भगवान् का शब्दार्थ है- 'भगवाली ग्रात्मा ।'
प्राचार्य हरिभद्र ने भगवान् शब्द पर विवेचन करते हुए 'भग' शब्द के छः अर्थ बतलाए हैं - ऐश्वर्य प्रताप, वीर्य शक्ति अथवा उत्साह, यश-कीर्ति, श्री शोभा, धर्म-सदाचार और प्रयत्न कर्तव्य की पूर्ति के लिए किया जाने वाला अदम्य पुरुषार्थ । जैसा कि उन्होंने कहा है
"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, वीर्यस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याऽथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥"
- दशवैकालिक-सूत्र टीका, ४।१
अतः यहाँ स्पष्ट है कि जिस महान् श्रात्मा में पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण वीर्य, पूर्ण यश, पूर्ण श्री, पूर्ण धर्म र पूर्ण प्रयत्न स्थित हो, वह भगवान् कहलाता है। तीर्थंकर महाप्रभु में उक्त छहों
पूर्णरूप से विद्यमान होते हैं, अतः वे भगवान् कहे जाते हैं ।
जैन- संस्कृति, मानव संस्कृति है । यह मानव में ही भगवत् -स्वरूप की झाँकी देखती है । अतः जो साधक, साधना करते हुए वीतराग-भाव के पूर्ण विकसित पद पर पहुँच जाता है, वही यहाँ भगवान् बन जाता है। जैन-धर्म यह नहीं मानता कि मोक्षलोक से भटक कर ईश्वर यहाँ अवतार लेता है, और वह संसार का भगवान् बनता है। जैन-धर्म का भगवान् भटका हुआ ईश्वर नहीं; परन्तु पूर्ण विकास पाया हुआ जागृत मानव आत्मा ही ईश्वर है, भगवान् है । उसी के चरणों में स्वर्ग के इन्द्र अपना मस्तक झुकाते हैं, उसे अपना आराध्य देव स्वीकार करते हैं। तीन लोक का सम्पूर्ण ऐश्वर्य उसके चरणों में उपस्थित रहता है । उसका प्रताप, वह प्रताप है, जिसके समक्ष कोटि-कोटि सूर्यो का प्रताप और प्रकाश भी फीका पड़ जाता है - 'प्राइच्चेसु श्रहियं पयासयरा ।'
अरहन्त : आदिकर
अरहन्त भगवान आदिकर भी कहलाते हैं। आदिकर का मूल अर्थ है, आदि करने वाला । यहाँ प्रश्न हो सकता है कि किसकी प्रादि करने वाला ? धर्मं तो अनादि है, उसकी आदि कैसी ? उत्तर है कि धर्म अवश्य अनादि है । जब से यह संसार है, संसार का बन्धन है, तभी से धर्म है, और उसका फल मोक्ष भी है । जब संसार अनादि है, तो धर्म भी अनादि ही हुआ । परन्तु यहाँ जो धर्म की यादि करने वाला कहा गया है, उसका अभिप्राय यह है कि हम भगवान् धर्म का निर्माण नहीं करते, प्रत्युत धर्म की व्यवस्था का, धर्म की मर्यादा का निर्माण करते हैं । अपने-अपने युग में धर्म में जो विकार आ जाते हैं, धर्म के नाम पर जो मिथ्या प्रचार फैल जाते हैं, उनकी शुद्धि करके नये सिरे से धर्म की मर्यादाओं का विधान करते हैं । अतः अपने युग में धर्म की आदि करने के कारण अरहन्त भगवान् ' आदिकर' कहलाते हैं ।
Jain Education International
हमारे विद्वान् जैनाचार्यों की एक परम्परा यह भी है कि अरहन्त भगवान् श्रुतधर्म की आदि करने वाले हैं, अर्थात् श्रुत-धर्म का निर्माण करने वाले हैं । जैन साहित्य में आचारांग आदि धर्म-सूत्रों को श्रुत-धर्म कहा जाता है । भाव यह है कि तीर्थंकर भगवान् पुराने चले आये धर्म-शास्त्रों के अनुसार अपनी साधना का मार्ग नहीं तैयार करते । उनका जीवन अनुभव का जीवन होता है । अपने आत्मानुभव के द्वारा ही वे अपना मार्ग तय करते हैं और फिर उसी को जनता के समक्ष रखते हैं। पुराने पोथी-पत्नों का भार लादकर चलना,
१. प्राचार्य जिनदास ने दशवेकालिक चूर्णि में 'वीर्य' के स्थान में 'रूप' शब्द का प्रयोग किया है।
अरिहन्तः अरहन्त, अरुहन्त
For Private & Personal Use Only
४५ www.jainelibrary.org