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________________ के कर्म ही वस्तुतः संसार के सब जीवों के अरि हैं। अतः जो महापुरुष उन कर्म-शत्रुओं का नाश कर देता है, वह अरिहन्त कहलाता है।" "अट्ठविहं पि य कम्म, अरिभूयं होइ सम्व-जीवाणं । तं कम्मर हंता, अरिहंता तेण वुच्चंति ॥" --आवश्यक नियुक्ति ६१४ प्राचीन मागधी, प्राकृत और संस्कृत ग्रादि भाषाएँ बड़ी गम्भीर एवं अनेकार्थ-बोधक भाषाएँ हैं। यहाँ एक शब्द, अपने अन्दर में स्थित अनेकानेक गम्भीर भावों की सूचना देता है। अतएव प्राचीन आचार्यों ने अरिहन्त आदि शब्दों के भी अनेक अर्थ सूचित किए हैं। अधिक विस्तार में जाना यहाँ अभीष्ट नहीं है, तथापि संक्षेप में परिचय के नाते कुछ लिख देना आवश्यक है। 'अरिहन्त' शब्द के स्थान में अनेक प्राचीन आचार्यों ने अरहन्त और अरुहन्त पाठान्तर भी स्वीकार किए हैं। उनके विभिन्न संस्कृत रूपान्तर होते हैं--अर्हन्त, अरहोऽन्तर्, अरथान्त, अरहन्त और अरुहन्त आदि । 'अर्ह-पूजायाम्' धातु से बनने वाले अर्हन्त शब्द का अर्थ पूज्य है। वीतराग तीर्थकरदेव विश्व-कल्याणकारी धर्म के प्रवर्तक है, अतः असुर, सुर, नर आदि सभी के पूजनीय हैं । वीतराग की उपासना तीन लोक में की जाती है, अतः व त्रिलोक-पूज्य है, स्वर्ग के इन्द्र भी प्रभु के चरण-कमलों की रज मस्तक पर चढ़ाते हैं, और अपने को धन्य-धन्य समझते हैं। अरहोऽन्तर् का अर्थ-सर्वज्ञ है। रह का अर्थ है-रहस्यपूर्ण---गुप्त वस्तु । जिनसे विश्व का कोई रहस्य छुपा हुआ नहीं है, अनन्तानन्त जड़-चैतन्य पदार्थों को हस्तामलक की भाँति स्पष्ट रूप से जानते-देखते हैं, वे अरहोऽन्तर कहलाते हैं। अरथान्त का अर्थ है---परिग्रह और मृत्यु से रहित । 'रथ' शब्द उपलक्षण से परिग्रहमात्र का वाचक है और अन्त शब्द विनाश एवं मृत्यु का । अतः जो सब प्रकार के परिग्रह से और जन्म-मरण से अतीत हो गया, वह प्ररथान्त कहलाता है। अरहन्त का अर्थ-आसक्ति-रहित है। रह का अर्थ आसक्ति है । अतः जो मोहनीय कर्म को समूल नष्ट कर देने के कारण राग-भाव से सर्वथा रहित हो गए, वे अरहंत कहलाते हैं । अरुहन्त का अर्थ है-कर्म-बीज को नष्ट कर देने वाले, फिर कभी जन्म न लेने वाले । 'रुह धातु का संस्कृत भाषा में अर्थ है—सन्तान अर्थात् परम्परा। बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज, फिर बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज- यह बीज-वृक्ष की परम्परा अनादि काल से चली आ रही है। यदि कोई बीज को जलाकर नष्ट कर दे, तो फिर वृक्ष उत्पन्न नहीं होगा, बीज-वृक्ष की इस प्रकार की परम्परा समाप्त हो जाएगी। इसी प्रकार कर्म से जन्म, और जन्म से कर्म की परम्परा भी अनादिकाल से चली आ रही है। यदि कोई साधक रत्न-त्रय की साधना की अग्नि से कर्म-बीज को पूर्णतया जला डाले, तो वह सदा के लिए जन्म मरण की परम्परा से मुक्त हो जाएगा, अरुहन्त शब्द की इसी व्याक्या को ध्यान में रखकर प्राचार्य उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र के अपने स्वोपज्ञ भाष्य में कहते हैं "दग्धेबीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नाऽङ्कुरः। कर्म-बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाऽङ्कुरः॥" -उपसंहार कारिका, ८ ४४ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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