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________________ का हानि-लाभ देखने में भी है । केवलज्ञान पाने के बाद तीस वर्ष तक भगवान् महावीर निष्काम भाव से जन सेवा करते रहे । तीस वर्ष के धर्म प्रचार से एवं जन-कल्याण से भगवान् को कुछ भी व्यक्तिगत लाभ न हुआ, और न उनको इसकी अपेक्षा ही थी । उनका अपना आध्यात्मिक जीवन बन चुका था, और कुछ साधना शेष नहीं रहा था, फिर भी विश्व- करुणा की भावना से जीवन के अन्तिम क्षण तक जनता को सन्मार्ग का उपदेश देते रहे । आचार्य शीलांक ने सूत्रकृतांग सूत्र की अपनी टीका में इसी बात को ध्यान में रखकर कहा है "धर्ममुक्तवान् प्राणिनामनुग्रहार्थम्, न पूजा-सत्कारार्थम् ” केवल टीका में ही नहीं, जैन-धर्म के मूल आगम - साहित्य में भी यही भाव बताया गया है ४२ -सुत्रकृतांग टीका १।६।४. " सव्वजगजीव- रक्खण-दयटुयाए पावयणं भगवया सुकहियं" तीर्थंकर सर्वज्ञ - सर्वदर्शी : सूत्रकार ने 'जिणाणं' आदि विशेषणों के बाद 'सव्वन्नूणं सव्वदरिसोणं' के विशेषण बड़े ही गम्भीर अनुभव के आधार पर रखे हैं । जैन धर्म में सर्वज्ञता के लिए शर्त है, राग और द्वेष का क्षय हो जाना। राग-द्वेष का सम्पूर्ण क्षय किए बिना, अर्थात् उत्कृष्ट वीतराग भाव सम्पादन किए बिना सर्वज्ञता सम्भव नहीं । सर्वज्ञता प्राप्त किए बिना पूर्ण प्राप्त पुरुष नहीं हो सकता । पूर्ण प्राप्त पुरुष हुए बिना त्रिलोक-पूज्यता नहीं हो सकती, तीर्थंकर पद की प्राप्ति नहीं हो सकती। उक्त 'जिणाणं' पद ध्वनित करता है कि जैन धर्म में वही आत्मा सुदेव है, परमात्मा है, ईश्वर है, परमेश्वर है, परब्रह्म है, सच्चिदानन्द है, जिसने चतुर्गतिरूप संसार-वन में परिभ्रमण कराने वाले राग-द्वेष आदि अन्तरंग शत्रुनों को पूर्णरूप से नष्ट कर दिया है । जिसमें राग-द्वेष आदि विकारों का थोड़ा भी ग्रंश हो, वह साधक भले ही हो सकता है, परन्तु वह देवाधिदेव तीर्थंकर प्रथवा अर्हन्त परमात्मा नहीं हो सकता । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं Jain Education International -- प्रश्नव्याकरण- सूत्र २1१ - योगशास्त्र २१४ सर्वज्ञता का एक बड़ा ही सरल एवं व्यावहारिक अर्थ है--'आत्मवत् सर्व भूतेषु' की उदात्त दृष्टि । तात्पर्य यह है कि जब एक साधक व्यक्ति अपनी आत्मा का विकास ऐसे उच्च एवं विस्तृत धरातल पर कर लेता है, जहाँ विश्व की समस्त अनुभूति को, सुख, दुःख, हर्ष, विषाद, प्रमोद एवं पीड़ा की भावनाओं को अपनी मैत्री करुणा की भावना में अन्तर्भूत कर लेता है, विश्व की समस्त आत्माओं में अपनी आत्मा को मिला देता है, वस्तुतः ऐसी ही विश्व पीठिका पर, वह सर्वज्ञ हो जाता है । सर्वज्ञ का सीधा फलितार्थ यही है कि हम भी उनके समान ही विश्व की सभी आत्माओं को समभाव से, समानरूप से देखें । इस स्थिति में वैयक्तिक आत्मा की आवाज, विश्वात्मा की श्रावाज होती है, उसका चिन्तन विश्व- श्रात्मा का चिन्तन होता है, उसकी अनुभूति, विश्व आत्मा की अनुभूति होती है। भावरूप से विश्व उसमें निहित होता है और वह विश्वमय हो जाता है। वही सर्वज्ञ होता है, सर्वदर्शी होता है, तीर्थंकर होता है, अन्त होता है । "सर्वज्ञो जितरागादि दोषस्त्रैलोक्य- पूजितः । यथास्थितार्थ वादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।। " For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ee धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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