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होते हैं । छद्म का दूसरा अर्थ है - 'छल और प्रमाद ।' अतः छल और प्रमाद से रहित होने के कारण भी तीर्थंकर 'व्यावृत्तछद्म' कहे जाते हैं ।
तीर्थंकर भगवान् का जीवन पूर्णतया सरल और समरस रहता है। किसी भी प्रकार की गोपनीयता या विषमता उनके मन में नहीं होती। क्या अन्दर और क्या बाहर, सर्वत्र समभाव रहता है, स्पष्ट भाव रहता है। यही कारण है कि भगवान् महावीर आदि तीर्थंकरों का जीवन पूर्ण प्राप्त पुरुषों का जीवन रहा है। उन्होंने कभी भी दुहरी बातें नहीं की । परिचित और अपरिचित, साधारण जनता और असाधारण सम्राट् आदि, नासमझ बालक और समझदार वृद्ध - सबके समक्ष एक समान रहे। जो कुछ भी परम सत्य उन्होंने प्राप्त किया, निश्छल - भाव से जनता को अर्पण किया। यही प्राप्त जीवन है, जो शास्त्र में प्रामाणिकता लाता है । आप्त-पुरुष का कहा हुआ प्रवचन ही प्रमाणाबाधित तत्त्वोपदेशक, सर्वजीव - हितंकर, प्रदृष्ट-दृष्ट के विरोध से रहित प्रकाट्य तथा मिथ्या मार्ग का निराकरण करने वाला होता है । आचार्य सिद्धसेन तथा आचार्य समन्तभद्र ने शास्त्र का उल्लेख करते हुए कहा है---
" प्राप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्य ---
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मदृष्टेष्टविरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत् सावं,
तीर्थंकर : मुक्ति पथ का प्रस्तोता
शास्त्रं कापथ- घट्टनम् ।। "
तीर्थंकर को वाणी : जन-कल्याणी :
तीर्थंकर भगवान् के लिए जिन, जापक, तीर्णं, तारक, बुद्ध, बोधक, मुक्त और मोचक के विशेषण बड़े ही महत्त्वपूर्ण हैं। तीर्थंकरों का उच्च जीवन वस्तुतः इन विशेषणों पर ही अवलम्बित है। राग-द्वेष को स्वयं जीतना और दूसरे साधकों जितवाना, संसार सागर से स्वयं तैरना और दूसरे प्राणियों को तैराना, केवलज्ञान पाकर स्वयं बुद्ध होना और दूसरों को बोध देता, कर्म-बन्धनों से स्वयं मुक्त होना और दूसरों को मुक्त कराना, कितना महान एवं मंगलमय आदर्श है ! जो लोग एकान्त निवृत्ति-मार्ग के गीत गाते हैं, अपनी आत्मा को ही तारने मात्र का स्वप्न रखते हैं, उन्हें इस ओर लक्ष्य देना चाहिए !
मैं पूछता हूँ, तीर्थंकर भगवान् गंगा आदि महानदियों को पार करते हुए क्यों दूर-दूर देशों में भ्रमण कर अहिंसा और सत्य का सन्देश देते हैं ? वे तो केवलज्ञान और केवलदर्शन को पाकर कृतकृत्य हो गए हैं। अब उनके लिए क्या पाना और क्या करना शेष है ? संसार के दूसरे जीव मुक्त होते हैं या नहीं, इससे उनको क्या हानि-लाभ ? यदि लोग धर्म-साधना करेंगे, तो उन्हीं को लाभ है और नहीं करेंगे, तो उन्हीं को हानि है । उनके लाभ और हानि से, भगवान को क्या लाभ-हानि है ? जनता को प्रबोध देने से उनकी मुक्ति में क्या विशेषता हो जाएगी ? और यदि प्रबोध न दें, तो कौन-सी विशेषता कम हो जाएगी ?
इन सब प्रश्नों का उत्तर जैनागमों का मर्मी पाठक यही देता है कि जनता को प्रबोध देने और न देने से, भगवान् को कुछ भी व्यक्तिगत हानि-लाभ नहीं है । भगवान् किसी स्वार्थं को लक्ष्य में रखकर कुछ भी नहीं करते । न उनको पंथ चलाने का मोह है, न शिष्यों की टोली जमा करने का स्वार्थ है । न उन्हें पूजा-प्रतिष्ठा चाहिए और न मान-सम्मान ! वे तो पूर्ण वीतराग पुरुष हैं । श्रतः उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति केवल करुणाभाव से होती है । जन-कल्याण की श्रेष्ठ भावना ही धर्म-प्रचार के मूल में निहित है, और कुछ नहीं । तीर्थंकर अनन्त करुणा के सागर हैं । फलतः किसी भी जीव को मोह-माया में आकुल देखना उनके लिए करुणा की वस्तु है । यह करुणा भावना ही उनके महान् प्रवृत्तिशील जीवन की आधारशिला है। जैनसंस्कृति का गौरव प्रत्येक बात में केवल अपना हानि-लाभ देखने में ही नहीं है, प्रत्युत जनता
-न्यायावतार सूत्र, रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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