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________________ अन्न मानव के प्राण हैं। अन्न का तिरस्कार करना, अपने जीवनाधार प्राणों का तिरस्कार करना है। इस प्रकार जूठन छोड़ना भारतवर्ष में सदा से अपराध समझा जाता रहा है। हमारे प्राचीन महर्षियों ने तो उसे एक बहुत बड़ा पाप कहा है। आमतौर पर जूठन छोड़ना एक मामूली बात समझी जाती है। लोग सोचते हैं कि आधी छटाँक जूठन छोड़ दी, तो क्या हो गया ? इतने अन्न से क्या बनने-बिगड़ने वाला है ? परन्तु यदि इस आधी छटाँक का हिसाब लगाने बैठे, तो आँखें खुल जाएँगी। इस रूप में एक परिवार का हिसाब लगाएँ तो साल भर में इक्यानवे पौंड अनाज देश की नालियों में बह जाता है। अगर ऐसे पाँच हजार परिवारों में जूठन के रूप में छोड़े जाने वाले अन्न को बाँट दिया जाए, तो बारह सौ आदमियों को राशन मिल सकता है। यह विषय इतना सीधा-सा है कि उसे समझने के लिए वेद और पुराण के पन्ने पलटने की आवश्यकता नहीं है। आज के युग का तकाजा है कि थाली में जूठन के रूप में कुछ भी न छोड़ा जाए। न जरूरत से ज्यादा लिया ही जाए और न जबरदस्ती परोसा ही जाए। यही नहीं, जो जरूरत से ज्यादा देने-लेने वाले हैं, उनका खुलकर विरोध किया जाए और उन्हें सभ्य समाज में निदित किया जाए। ऐसा करने में न तो किसी को कुछ त्याग ही करना पड़ता है और न किसी को कोई कठिनाई ही उठानी पड़ती है। यही नहीं, बल्कि सब दृष्टियों से स्वास्थ्य की दृष्टि से, आर्थिक दृष्टि से और सांस्कृतिक दृष्टि से--लाभ ही लाभ है। ऐसी स्थिति में आप क्यों न यह संकल्प कर लें कि हमें जूठन नहीं छोड़नी है और जितना खाना है, उससे ज्यादा नहीं लेना है। अगर आपने ऐसा किया, तो अनायास ही करोड़ों मन अन्न बच सकता है । उस हालत में प्रापका ध्यान अन्न के महत्व की ओर सहज रूप से आकर्षित होगा और अन्न की समस्या को सुलझाने की सूझ-बूझ भी प्रापको स्वतः प्राप्त हो जाएगी। प्राज राशन पर तो नियन्त्रण हो रहा है, किन्तु खाने पर कोई नियन्त्रण नहीं है । जब आप खाने बैठते हैं, तो सरकार आपका हाथ नहीं पकड़ती। वह यह नहीं कहती कि इतना खायो और इससे ज्यादा न खायो। मैं नहीं चाहता कि ऐसा नियन्त्रण आपके ऊपर लादा जाए। परन्तु मालूम होना चाहिए कि आप थाली में डालकर ही अन्न को बर्बाद नहीं करते, बल्कि पेट में डालकर भी बर्बाद करते हैं। इसके लिए आचार्य बिनोवा ने ठीक ही कहा है कि-'जो लोग भूख से—पेट से ज्यादा खाते हैं, वे चोरी करते हैं।' चोरी, अपने समाज की है, अपने देश की है। अपने शरीर को ठीक रूप में बनाए रखने के लिए जितने परिमाण में भोजन की आवश्यकता है, अनेक लोग प्रायः उससे बहुत अधिक खा जाते हैं। आवश्यकता से अधिक खाए गए भोज्य-पदार्थों का ठीक तरह रस नहीं बन पाता और इस प्रकार वह भोजन व्यर्थ जाता है। ठीक तरह चबाया जाए और इतना चबाया जाए कि भोजन लार में मिलकर एक रस हो जाए, तो ऐसा करने से मौजूदा भोजन से प्राधा भोजन भी पर्याप्त हो सकता है। अल्प भोजन का प्रयोग करने वालों का यह अनुभूत अभिमत है-अगर इस तरह अल्प भोजन करना आरम्भ कर दें, तो आपका स्वास्थ्य भी अच्छा बन सकता है और अन्न की भी बहुत बड़ी बचत हो सकती है। उपवास का महत्त्व: अन्न की समस्या के सिलसिले में उपवास का महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी हमारे सामने है । भारत में सदैव उपवास का महत्त्व स्वीकार किया गया है। खासतौर से जैन-परम्परा में तो उसकी बड़ी महिमा है। आज भी बहुत-से भाई-बहन उपवास किया करते हैं। प्राचीन काल के जैन महर्षि लम्बे-लम्बे उपवास किया करते थे। अाज भी महीने में कुछ दिन ऐसे आते हैं, जो उपवास में ही व्यतीत किए जाते हैं। . वैदिक-परम्परा में भी उपवास का महत्त्व कम नहीं है। इस परम्परा में, जैसा कि मैंने पढ़ा है, वर्ष के तीन सौ साठ दिनों में ज्यादा दिन उपवास के ही पड़ते हैं। ४०२ Jain Education Intemational पन्ना समिक्सए धम्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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