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________________ कुछ काल से यह दुर्भाग्य रहा है कि वह अपने जीवन के आदर्शों को, अपने जीवन की ऊँचाइयों को लेकर, जिन्हें कि कभी पूर्व पुरुषों ने प्राप्त किया था, बड़ी लम्बी-लम्बी उड़ानें भरता रहा है । और, उस लम्बी उड़ान में इतना उड़ता रहा है कि यथार्थ उससे कोसों दूर छूट गया है । वह जीवन की समस्याओं को भुलाकर, उन पर विचार करना तक छोड़कर मरणोत्तर स्वर्ग और मोक्ष की बातें करके अपने ग्रहं की तुष्टि करता रहा है । स्वर्ग और मोक्ष की मोहक आकांक्षा में वह कड़ी से कड़ी साधनाएँ तो करता रहा है, परन्तु यथार्थ के ऊपर कभी भूल से भी विचारणा नहीं की । धर्म को यदि हम देखें, तो इसके मुख्य रूप से दो भेद होते हैं - १. शरीर-धर्म और २. आत्म-धर्म- प्रात्मा का धर्म । इन दोनों का समन्वित रूप ही जीवन का युगधर्म है । सिर्फ आत्मा का धर्म अपनाना भी उतना ही एकांगी है, जितना सिर्फ शरीर का धर्म ही धारण करना । दोनों में तट और तरी का सम्बन्ध है, गुंबद और नींव का सम्बन्ध है । जिस प्रकार बिना तरी के धारा के पार तट की कल्पना कल्पना भर है, उसी प्रकार आत्मा का धर्म, शरीर धर्म के बिना, नींव के बिना भवननिर्माण से कुछ ज्यादा नहीं जान पड़ता । एक विचारक ने सत्य ही कहा है- “Sound mind in a sound body" "नीरुज तन शुचिमन संधान | क्षीणता हीनतामय अज्ञान ।।" जीवन का आधार : मैं समझता हूँ, कोई भी देश स्वप्नों की दुनिया में जीवित नहीं रह सकता । माना, स्वप्न जीवन से अधिक दूर नहीं होता, जीवन में से ही जीवन का स्वप्न फूटता है, परन्तु कोई-कोई स्वप्न दिवास्वप्न भी होता है--ख्याली पुलाब, बेबुनियाद हवाई किला-सा । पक्षी आकाश में उड़ता है, उसे भी आनन्द आता है, दर्शक को भी; किन्तु क्या उसका आकाश में सदा उड़ते रहना सम्भव है ? कभी नहीं । आाखिर दाना चुगने के लिए तो उसे पृथ्वी पर उतरना ही पड़ेगा ! कोई भी संस्कृति और धर्म जीवन की वास्तविकता से दूर, कल्पना की दुनियाँ में आबद्ध नहीं रह सकता। यदि रहे, तो उसीमें घुटकर मर जाए, जीवित न रहे । उसे कल्पना की संकीर्ण परिधि के पार निकलना ही होगा, जहाँ जीवन यथार्थ आधार की ठोस भूमि पर नानाविध समस्याएँ लिए खड़ा है । उसे इन्हें सुलझाना ही होगा। ऐसा किए बिना हम न तो अपना भला कर सकते हैं, न देश का ही । विश्व कल्याण का स्वप्न तो स्वप्न ही बना रहेगा । मैं कोरे श्रादर्शवादियों से मिला हूँ और उनसे गम्भीरता से बातें भी की हैं। कहना चाहिए, हमारे विचारों को, हमारी वाणी को कहीं आदर भी मिला है, तो कहीं तिरस्कार भी मिला है। जीवन में कितनी बार कड़वे घूंट पीने पड़े हैं, किन्तु इससे क्या ? हमें तो उन सिद्धान्तों व विचारों के पीछे, जो जीवन की समस्याओं का निदान यथार्थवादी दृष्टिकोण से करने का मार्ग दिखाते हैं, कड़वे घूंट पीने के लिए तैयार रहना चाहिए। और, यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि सत्य के लिए लड़ने वालों को सर्वप्रथम सर्वत्र जहर के प्याले ही पीने को मिलते हैं, अमृत की रसधार नहीं । विश्व का कल्याण करने वाला जब तक हलाहल का पान न करेगा, वह कल्याण करेगा कैसे ? विष पीये बिना, कोई भी शिव शंकर नहीं बन सकता । हाँ तो, आज भारतवर्ष की बड़ी पेचीदा स्थिति है । जीवन जब पेचीदा हो जाता है, तो वाणी भी पेचीदा हो जाती है और जीवन उलझा हुआ होता है, तो वाणी भी उलझ जाती है । जीवन का सिद्धान्त साफ नहीं होगा, तो वाणी भी साफ नहीं होगी । ऋतः हमें समस्याओं को सुलझाना है और तदर्थ वाणी को भी साफ बनाना है । जबतक धर्मगुरु तथा राष्ट्र और समाज के नेता अपनी वाणी को शाब्दिक माया जाल में से बाहर निकाल ३६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्खए धस्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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