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वह सोने का देश भारत आज इस हालत में पहुँच चुका है कि जिस ओर दृष्टि डालिए उस ओर ही हाय-हाय, तड़प-चीख और भूख की हृदय-विदारक चित्कार सुनाई देती है। विषमता की दुर्लध्य खाई के बीच कीड़े के समान आज का मानव कुलबुला रहा हैं। एक तरफ काम करने वाले श्रमिक कोल्हू के बैल-से पिसते-पिसते कृश एवं क्षीण होते जा रहे हैं, दूसरी तरफ ऊँची हवेलियों में रहने वाले ऐशो-आराम की जिन्दगी गुजार रहे हैं। एक नव-वधू के लज्जा-वसन बेच कर ब्याज चुकाता है, दूसरा तेल-फुलेलों पर पानीसा धन बहाकर दंभी जीवन बिताता है। परन्तु, आज के ये धन्ना सेठ भी अन्दर में कहाँ सुखी हैं। शोषण की नींव पर खड़े महलों में दुःख के, पीड़ा के, तृष्णा के कीड़े कुलबुलाते रहते हैं। कुछ और, कुछ और की चाह उन्हें न दिन में हँसने देती है, न रात में सोने देती है। आज का भारत तो अस्थिपंजर का वह कंकाल-बना हुआ है कि जिसे देखकर करुणा को भी करुणा आती है। वह स्वर्ग का योग-क्षेम-कर्ता आज असहाय भिक्षुक बना पथ पर ठोकरें खाता फिरता है--
"वह पाता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर प्राता। पेट-पीठ मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को, मुंह फटी पुरानी झोली को फैलाता।
चाट रहे जूठी पत्तल ने कभी सड़क पर खड़े हुए, और झपट लेने को उनसे, कुत्ते भी हैं अड़े हए।"
यह है आज के हमारे भारत की सच्ची तसवीर ! वही यह देश है, जो कभी संसार को अन्न का अक्षय दान देता था। संसार को रोटी और कपड़े का दान देता था। जिसकी धर्म की पावन टेर आज भी सागर की लहरों में सिसक रही है-सर तोड़ती, उठती-गिरती ! जिसके स्मृति चिन्ह आज भी जावा, सुमात्रा, लंका आदि देशों में देखने को मिल जाते हैं । जिसकी दी हुई संस्कृति की पावन भेंट संसार को मनुष्यता की सीख देती रही है, क्या इसमें
आज भी वह क्षमता है ? किन्तु कहाँ ? आज तो, कल का दाता, आज का भिक्षुक बना हुआ है। कल का सहायता देने वाला आज सहायता पाने को हाथ पसारे अन्य देशों की
ओर अपलक निहार रहा है। 'एगे आया' का व्याख्याता, 'वधसुधैव कुटुम्बकम्' के पावन संदेश का उद्गाता भारत आज स्वयं नोन, तेल, लकड़ी के चक्कर में तबाह हो रहा है ।
आज हमारे सामने इतिहास का एक जलता प्रश्न खड़ा है कि हम कैसे रहें ? कसा जीवन अपनाएँ। प्रश्न साधारण नहीं है। अतः उत्तर भी यों ही कोई चलता नहीं दिया जा सकता। आइए, इस पर कुछ चर्चा करें।
हमारा युग-धर्म: - मैं उस आध्यात्मिक-परम्परा को महत्त्व देता हूँ, जिसमें मैंने यह साधुवृत्ति ली है। मैंने आर्हत् धर्म की विचारधारा का गहन अध्ययन किया है। उसमें मुझे बड़ा रस आया है, हार्दिक अानन्द भी मिला है। किन्तु, सवाल यह है कि क्या हम उस महान् विचारधारा को सिर्फ पढ़कर, समझकर आनन्द लेते रहें, मात्र आदर्श का कल्पनामय सुख ही प्राप्त करते रहें, या यथार्थ को भी पहचानें, युगधर्म की आवाज भी सुनें? भारतवर्ष का,
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