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________________ शास्त्र में अत्यधिक प्रसिद्ध है । एक उदाहरण है - प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का और दूसरा हैतन्दुल मत्स्य का | प्रसन्नचन्द्र राजर्षि बाहर में ध्यान मुद्रा में स्थित निष्कर्म खड़े हैं, किन्तु मन के भीतर भयंकर कोलाहल मचा हुआ है, रणक्षेत्र बना हुआ है। मन घमासान युद्ध में संलग्न है और तब भगवान् महावीर के शब्दों में वह सातवीं नरक तक के कर्म दलिक बाँध लेता है । तन्दुल मत्स्य का उदाहरण इससे भी ज्यादा बारीकी में ले जाता है। एक छोटा-सा मत्स्य ! नन्हे चावल के दाने जितना शरीर ! और आयुष्य कितना ? सिर्फ अन्तर्मुहूर्त भर का ! इस लघुतम देह और अल्पतम जीवन काल में वह अकर्म में कर्म इतना भयंकर कर लेता है कि मर कर सातवीं नरक में जाता है । कहा जाता है कि दुल मत्स्य जब विशालकाय मगरमच्छ के मुह में आती-जाती मछलियों को देखता है, तो सोचता है— कैसा है यह श्रालसी ! इतनी छोटी-बड़ी मछलियाँ इसके मुँह में आ-जा रही हैं, लेकिन यह अपना जबड़ा बन्द क्यों नहीं करता, इन्हें निगल क्यों नहीं जाता। यदि मैं महाकाय होता, तो बस एक बार ही सबको निगल जाता । भीतर-हीभीतर उनका कलेवा कर डालता । ये उदाहरण सिर्फ आमतौर पर व्याख्यान में सुनाकर मन बहलाने के लिए नहीं है, इनमें बहुत सूक्ष्म चिन्तन छिपा है, जीवन की एक बहुत गहरी गुत्थी को सुलझाने का मर्म छिपा है इनमें । सनसा पाप : हम बोलचाल की भाषा में जिसे मनसा पाप कहते है, वह क्या है ? वह यही तो स्थिति मनुष्य बाहर में तो बड़ा शान्त, भद्र और निःस्पृह दिखाई दे, किन्तु भीतर-ही-भीतर क्रोध, ईर्ष्या और लोभ के विकल्प उनके हृदय को मथते रहें, क्षुब्ध महासागर की तरह मन तरंगाकुल हो, किन्तु तन बिलकुल शान्त ! आज के जन-जीवन में यह सबसे बड़ी समस्या है कि मनुष्य दुरंगा, दुहरे व्यक्तित्व वाला बन रहा है । वह बाहर में उतने पाप नहीं कर रहा है, जितने भीतर में कर रहा है । तन को वह कुछ पवित्र अर्थात् संयत रखता है, कुछ सामाजिक व राष्ट्रिय मर्यादाओं के कारण, कुछ अपने स्वार्थों के कारण भी ! पर मन को कौन देखे ? मन के विकल्प उसे रात-दिन मते रहते हैं, बेचैन बनाए रखते हैं, हिंसा और द्वेष के दुर्भाव भीतर-ही-भीतर जलाते रहते हैं। इस मनसा पाप के दुष्परिणामों का निदर्शन आचार्यों ने उपर्युक्त उदाहरणों से किया है । और, यह स्पष्ट किया है कि यह 'कर्म में कर्म की स्थिति बहुत भयानक, दुःखप्रद और खतरनाक है । कर्म में अकर्म : बाहर में कर्म नहीं करते हुए भी भीतर में कर्म किए जाते हैं ---यह स्थिति तो प्राज सामान्य है, किसी के अन्तर की खिड़की खोलकर देख लीजिए, अच्छा तो यह हो कि अपने ही भीतर की खिड़की उघाड़ कर देख लिया जाए कि कर्म में कर्म का चक्र कितनी तेजी और कितनी भीषणता के साथ चल रहा है। किन्तु यह स्थिति जीवन के लिए हितकर एवं सुखकर नहीं है, इसलिए वांछनीय भी नहीं है । हमारा दर्शन हमें 'अकर्म में कर्म' से उठाकर 'कर्म में अकर्म' की ओर मोड़ता है । ज्यादा अन्तर नहीं है, शब्दों का थोड़ा-सा हेर-फेर है । अंग्रेजी में एक शब्द है डोग 'DOG' और इसी को उलटकर एक दूसरा शब्द है गोड 'GOD' । डोग कुत्ता है और गोड ईश्वर है ! 'कर्म में कर्म' - यह जीवन में डोग का रूप है, उसे उलट दिया तो 'कर्म में कर्म'यह गोड का रूप हो गया । मतलब इसका यह हुआ कि बाहर में अकर्म, निष्क्रियता और भीतर में कर्म - राग-द्वेष के विकल्प - यह जीवन की हीन वृत्ति है, क्षुद्र वृत्ति है । और, बाहर श्रन्तर्यात्रा Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५७ www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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