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________________ मूल प्रश्न कर्म का नहीं, कर्म के बन्धन का है। क्या हर कर्म, बन्धन का हेतु होता है ? उत्तर है-नहीं होता । बात यह है कि आप जब कर्म में लिप्त होने लगते हैं, प्रासक्त होते है, तो मोह पैदा होता है, तब कर्म के साथ बन्धन भी आ जाता है। जीवन में अच्छे-बुरे जो भी कर्म हैं, उनके - साथ मोह - राग और क्षोभ-द्वेष का सम्पर्क होने से वे सब बन्धन के कारण बन जाते हैं । मैं जब प्रवचन करता हूँ, तो वह निर्जरा का कार्य है, पर उससे कर्म भी बाँध सकता हूँ । आलोचना और प्रशंसा सुन कर यदि राग-द्वेष के विकल्प में उलझ जाता हूँ, तो जो प्रवचनरूप कर्म करके भी अकर्म करने का धर्म था, वह कर्म बन्ध का कारण बन गया । कर्म के साथ जहाँ भी मोह का स्पर्श होता है, वहीं बन्ध होता है । तथागत बुद्ध ने एक बार कहा था- न तो चक्षु रूपों का बन्धन है और न रूप ही चक्षु के बन्धन है । किन्तु, जो वहाँ दोनों के प्रत्यय से (निमित्त से ) छन्द - राग प्रर्थात् स्नेह - भाव अथवा द्वेष - बुद्धि जागृत होती है, वही बन्धन है । ' भारतीय चिन्तन की यह वही प्रतिध्वनि है, जो उस समय के युग-चिन्तन में मुखरित हो रही थी । कर्म-कर्म का विवेचन-विश्लेषण जब किया जा रहा था, तब भगवान् महावीर ने स्पष्ट उद्घोषित किया था । यह सम्भव नहीं है और शक्य भी नहीं कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आए। यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है । श्रोत्र आदि इन्द्रियों में शब्दादि विषय यथाप्रसंग अनुभूत होते ही हैं । अतः उनका त्याग यथाप्रसंग हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है । किन्तु, उनके प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग अवश्य करने जैसा है । कर्मबन्ध वस्तु में नहीं, वृत्ति में होता है । अतः रागात्मक वृत्ति का त्याग ही कर्मबन्ध से मुक्त रहने का उपाय है, यही कर्म में अकर्म रहने की कला है। गीता की भाषा में इसे ही 'निष्काम कर्म' कहा गया है । समग्र भारतीय चिन्तन ने अगर जीवन का कोई दर्शन, जीवन की कोई कला, जीवन की कोई दृष्टि दी है, तो वह यह कि -- निष्कर्म मत रहो, कर्म करो, किन्तु निष्काम रहो, कर्मफल की आसक्ति से मुक्त रहो । कर्म में कर्म : हमारा जीवन-दर्शन जीवन और जगत् के सभी पहलुओं को स्पर्श करता हुआ यागे बढ़ता है। प्रत्येक पहलू का यहाँ सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । जिस प्रकार 'कर्म में अकर्म रहने की स्थिति पर हमने विचार किया है, कुछ उसी प्रकार 'कर्म में कर्म' की स्थिति भी जीवन में बनती है, इस पहलू पर भी हमारे प्राचार्यों ने अपना बड़ा सूक्ष्म चिन्तन प्रस्तुत किया है, वे बहुत गहराई तक गए हैं। कर्म में कर्म की स्थिति जीवन में तब प्राती है, जब आप बाहर में बिलकुल चुपचाप निष्क्रिय पड़े रहते हैं, न कोई हलचल, न कोई प्रयत्न ! किन्तु मन के भीतर अन्तर्जगत् में राग-द्वेष की ती वृत्तियाँ मचलती उछलती रहती हैं । बाहर में कोई कर्म दिखाई नहीं देता, पर आपका मन कर्मों का तीव्र बन्धन करता चला जाता है। यह 'कर्म' में भी 'कर्म' की स्थिति है । 'अकर्म में कर्म' को स्पष्ट करने वाले दो महत्त्वपूर्ण उदाहरण हमारे साहित्य में, दर्शन १. न चक्खु रूपानं संयोजनं, न रूपा चक्खुस्स संयोजनं यं च तत्थ तदुभयं पटिच्च उपज्जति छन्दरागो तं तत्थ संयोजनं । - संयुक्तनिकाय ४।३५।२२२ ३५६ न सक्का रसमस्साडं जीहाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्खु परिवज्जए 11 - श्राचारांग, २।३।१५।१३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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