________________
समीक्षा होनी चाहिए। सूत्र है--"पन्ना समिक्खए धम्मम्' अर्थात् प्रज्ञा ही धर्म की समीक्षा करने में समर्थ है। और, धर्म है भी क्या ? तत्त्व का अर्थात् सत्यार्थ का विशिष्ट निश्चय ही धर्म है। और यह विनिश्चय अन्ततः मानव की प्रज्ञा पर ही आधारित है। शास्त्र और गुरु संभवतः कुछ सीमा तक योग दे सकते हैं। किन्तु, सत्य की आखिर मंजिल पर पहुँचने के लिए तो अपनी प्रज्ञा ही साथ देती है। 'प्र' अर्थात् प्रकृष्ट, उत्तम, निर्मल और 'ज्ञा' अर्थात् ज्ञान।
__जब मानव की चेतना पक्ष-मुक्त होकर इधर-उधर की प्रतिबद्धताओं से अलग होकर सत्याभिलक्षी चिन्तन करती है, तो उसे अवश्य ही, धर्म-तत्त्व की सही दृष्टि प्राप्त होती है। यह ऋतम्भरा प्रज्ञा है। ऋत् अर्थात् सत्य को वहन करने वाली शद्ध ज्ञान-चेतना। योग दर्शनकार पतञ्जलि ने इसी संदर्भ में एक सूत्र उपस्थित किया है--"ऋतंभरा तन्न प्रज्ञा", १, ४८. उक्त सूत्र की व्याख्या भोजवृत्ति में इस प्रकार है---
"ऋतं सत्यं विभत्ति कदाचिदपि न विपर्ययेणाऽच्छाद्यते सा ऋतंभरा प्रज्ञा
तस्मिन्सति भवतीत्यर्थः।" अर्थात् जो कभी भी विपर्यय से आच्छादित न हो, वह सत्य को धारणा करने वाली ऋतंभरा प्रज्ञा होती है।
माना कि साधारण मानव की प्रज्ञा की भी एक सीमा है। वह असीम और अनन्त नहीं है। फिर भी उसके बिना यथार्थ सत्य के निर्णय का अन्य कोई प्राधार भी तो नहीं है। अन्य जितने प्राधार है, वे तो सूने जंगल में भटकाने जैसे हैं और परस्पर टकराने वाले हैं। अतः जहाँ तक हो सके अपनी प्रज्ञा के बल पर ही निर्णय को आधारित रखना चाहिए। अन्तिम प्रकाश उसी से मिलेगा। शास्त्रों से भी निर्णय करेंगे, तब भी प्रज्ञा की अपेक्षा तो रहेगी ही। बिना प्रज्ञा के शास्त्र मूक हैं ? वे स्वयं क्या करेंगे? इस सम्बन्ध में एक प्राचीन मनीषी ने कहा है--"जिस व्यक्ति को अपनी स्वयं की प्रज्ञा नहीं है, उसके लिए शास्त्र भी व्यर्थ है। शास्त्र उसका क्या मार्ग-दर्शन कर सकता है ? अन्धा व्यक्ति यदि अच्छासे-अच्छा दर्पण लेकर अपना मुख-मण्डल देखना चाहे, तो क्या वह देख सकता
"यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् ।
लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणः किं करिष्यति ॥" शास्त्र के लिए प्राकृत में 'सुत्त' शब्द का प्रयोग किया गया है। उसके संस्कृत रूपान्तर अनेक प्रकार के हैं, उनमें सुत्त शब्द का एक संस्कृत रूपान्तर सुप्त भी होता है। यह रूपान्तर अच्छी तरह विचारणीय है। सुत्तं अर्थात् सुप्त है, यानी सोया हुआ है। सोया हुमा कार्यकारी नहीं होता है। उसके भाव को एवं परमार्थ को जगाना होता है। और, वह जागता है, चिन्तन एवं मनन से अर्थात मानव की प्रज्ञा ही उस सुप्त शास्त्र को जगाती है। उसके अभाव में वह केवल शब्द है, और कुछ भी नहीं। अतः प्राचीन विचारकों ने शास्त्र के साथ भी तर्क को संयोजित किया है। संयोजित ही नहीं, तर्क को प्रधानता दी गई है। प्राचीन मनीषी कहते हैं कि, जो चिन्तक तर्क से अनुसंधान करता है, वही धर्म के तत्त्व को जान सकता है, अन्य नहीं । युक्ति-हीन विचार से तो धर्म की हानि ही होती है।
"यस्तर्केणानुसंधत्ते, स धर्म वेदनेत्तरः।
युक्तिहीन विचारे तु, धर्महानिः प्रजायते ॥" १. उत्तराध्ययन, २३, २५. २. धम्म तत्त विणिच्छ्यं ।--उत्तराध्ययन, २३, २५. ३. सुत्तं तु सुतमेव उ। --अर्थन प्रबोधितं सुप्तमिव सुप्तं प्राकृतशैल्या सुतं ।
-बृहत्कल्प भाष्य एवं टीका, ३०६
पना समिक्खए धम्म
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org