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________________ २५ पन्ना समिक्खए धम्म धर्म शब्द जितना अधिक व्यापक स्तर पर प्रचलित है और उसका उपयोग किया जा रहा है, उतनी ही उसकी सूक्ष्मत्तर विवेचना नहीं की जा रही है। इस दिशा में उचित प्रयत्न जो अपेक्षित हैं, वे नहीं के बराबर है। और जो कुछ हैं भी, वे मानव चेतना को कभीकभी धुंधलके में डाल देते हैं। धर्म क्या है ? इसका पत्ता हम प्रायः विभिन्न मत-पंथों, उनके प्रचारक गुरुओं एवं तत्तत् शास्त्रों से लगाते हैं। और, आप जानते हैं, मत-पंथों की राह एक नहीं है। अनेक प्रकार के एक-दूसरे के सर्वथा विरुद्ध क्रिया काण्डों के नियमोपनियमों में उलझे हुए हैं, ये सब । इस स्थिति में किसे ठीक माना जाए, और किसे गलत? धर्म गुरुओं एवं शास्त्रों की आवाजें भी अलग-अलग है। एक गुरु कुछ कहता है, तो दूसरा गुरु कुछ और ही कह त्र, जिसका विधान करता है, दूसरा शास्त्र उसका निषेध कर देता है। इस स्थिति में विधि-निषेध के विचिन चक्रवात में मानव-मस्तिष्क अपना होश खो बैठता है। वह निर्णय करे, तो क्या करे ? यह स्थिति आज की ही नहीं, काफी पुरातन काल से चली आ रही है। महाभारतकार कहता है--श्रुति अर्थात् वेद भिन्न-भिन्न है। स्मृतियों की भी ध्वनि एक नहीं है। कोई एक मुनि भी ऐसा नहीं है, जिसे प्रमाण रूप में सब लोग मान्यता दे सकें। धर्म का तत्त्व एक तरह से अंधेरी गुफा में छिप गया है-- "श्रुतिविभिन्ना - स्मृत्यौविभिन्नाः, नैकोमुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् । विश्व जगत् में यत्र-तन अनेक उपद्रव, विरोध, संघर्ष, यहाँ तक कि नर-संहार भी प्रतीत के इतिहास में देखते हैं । आज भी इन्सान का खून बेदर्दी से बहाया जा रहा है । अतः धर्म-तत्त्व की समस्या का समाधान कहाँ है, इस पर कुछ-न-कुछ चिन्तन करना आवश्यक है। मानव, धरती पर के प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। उससे बढ़कर अन्य कोन श्रेष्ठतर प्राणी है ? स्पष्ट है, कोई नहीं है। चिन्तन-मनन करके यथोचित निर्णय पर पहुँचने के लिए उसके पास जैसा मन-मस्तिष्क है, वैसा धरती पर के किसी अन्य प्राणी के पास नहीं है। मानव अपनी विकास-यात्रा में कितनी दूर तक और ऊँचाइयों तक पहुँच गया है, यह आज सबके सामने प्रत्यक्ष है। कोई स्वप्न या कहानी नहीं है। आज मानव ऊपर चन्द्रलोक पर विचरण कर रहा है और नीचे महासागरों के तल को छ रहा है। एकएक परमाणु की खोज जारी है। यह सब किसी शास्त्र या गुरु के आधार पर नहीं हुआ है। इसका मूल मनुष्य के मन की चिन्तन-यात्रा में ही है। अतः धर्म-तत्त्व की खोज भी इधरउधर से हट कर मानव-मस्तिष्क के अपने मुक्त चिन्तन पर ही आ खड़ी होती है। यह मैं नई बात नहीं कह रहा हूँ। आज से अढ़ाई हजार वर्ष से भी कहीं अधिक पहले श्रावस्ती की महत्ती सभा में दो महान् ज्ञानी मुनियों का एक महत्त्वपूर्ण संवाद है। मुनि हैं—केशी और गौतम । मैं देखता है कि उक्त संवाद में कहीं पर भी अपने-अपने शास्ता एवं शास्त्रों को निर्णय के हेतु बीच में नहीं लाया गया है। सब निर्णय प्रज्ञा के आधार पर हया है। वहाँ स्पष्ट उल्लेख है, जो गौतम के द्वारा उपदिष्ट है कि प्रज्ञा के द्वारा ही धर्म की पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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