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________________ तू देह पर आसक्ति क्यों करता है ? जरा इस शरीर के अन्दर के रूप को तो देख, इसमें क्या कुछ भरा हुआ है। इसमें मल-मूत्र, हाड़-मांस और दुर्गन्ध के अतिरिक्त रखा भी क्या है ? चर्म का पर्दा हटते ही इसकी वास्तविकता तेरे सामने आ जाएगी। इस शरीर पर चन्दन एवं कपूर आदि सुगन्धित द्रव्य लगाने से वे स्वयं भी दुर्गन्धित हो जाते हैं। जो कुछ सरस एवं मधुर पदार्थ मनुष्य खाता है, वह सब कुछ शरीर के अन्दर पहुँचकर मलरूप में परिणत हो जाता है। और तो क्या, इस शरीर पर पहना जाने वाला वस्त्र भी इसके संयोग से मलिन हो जाता है। हे भव्य ! जो शरीर इस प्रकार अपवित्र एवं अशुचिपूर्ण है, उस पर तू मोह क्यों करता है, ग्रासक्ति क्यों करता है? तू अपने अज्ञान के कारण ही इस शरीर से स्नेह और प्रेम करता है। यदि इसके अन्दर का सच्चा रूप तेरे सामने आ जाए, तो एक क्षण भी तु इसके पास बैठ नहीं सकेगा। खेद की बात है कि मनुष्य अपने पवित्र आत्म-भाव को भूलकर, इस अशुचिपूर्ण शरीर पर मोह करता है। यह शरीर तो प्रशुचि, अपवित्र और दुर्गन्धयुक्त है। इस प्रकार अशुचि भावना के चिन्तन से साधक के मानस में त्याग और वैराग्य की भावना प्रबल होती है। इससे रूप की आसक्ति मन्द होती है। जिससे ब्रह्मचर्य के पालन में सहयोग मिलता है। योग-शास्त्र: प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'योगशास्त्र' के चतुर्थ प्रकाश में द्वादश भावनाओं का बड़ा सुन्दर एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। उसमें छठी अशुचि-भावना का वर्णन करते हुए कहा गया है कि यह शरीर, जिसके रूप और सौन्दर्य पर मनुष्य अहंकार एवं प्रासक्ति करते हैं, वह वास्तव में क्या है ? यह शरीर रस, रक्त, मांस, मेद (चर्बी), अस्थि (हाड़), मज्जा, वीर्य, आँत एवं मल-मूत्र आदि अशुचि पदार्थों से परिपूर्ण है। चर्म के पर्दे को हटाकर देखा जाए, तो यही सब कुछ उसमें देखने को मिलेगा। अतः यह शरीर किस प्रकार पवित्र हो सकता है ? यह तो अशुचि एवं मलिन है। इस देह के नव द्वारों से सदा दुर्गन्धित रस झरता रहता है और इस रस से यह शरीर सदा लिप्त रहता है। इस अशुचि शरीर में और अपवित्र देह में सुन्दरता और पवित्रता की कल्पना करना, ममता और मोह की विडम्बना मात्र है। इस प्रकार निरन्तर शरीर की अशुचि का चिन्तन करते रहने से मनुष्य के मन में वैराग्य-भावना तीव होती है और काम-ज्वर उपशान्त हो जाता है। ज्ञानार्णव : प्राचार्य शुभचन्द्र ने अपने 'ज्ञानार्णव' में, जिसका दूसरा नाम 'योग-प्रदीप' हैं, कहा है कि इस संसार में विविध प्रकार के जीवों को जो शरीर मिला है, वह स्वभाव से हो गलन और सडन-धर्मी है। अनेक धात और उपधातूओं से निर्मित है। शक और शोणित से इसकी उत्पत्ति होती है। यह शरीर अस्थि-पंजर है। हाड़, माँस और चर्बी की दुर्गन्ध इसमें से सदा पाती रहती है। भला जिस शरीर में मल-मूत्र भरा हो, कौन बुद्धिमान उस पर अनुराग करेगा? इस भौतिक शरीर में एक भी तो पदार्थ पवित्र और सुन्दर नहीं, जिस पर अनुराग किया जा सके। यह शरीर इतना अपवित्र और अशुचि है कि क्षीरसागर के पवित्र जल से भी यदि इसे धोया जाए तो उसे भी यह अपवित्र बना देता है। इस भौतिक तन की वास्तविक स्थिति पर जरा विचार तो कीजिए, यदि इस शरीर के बाहरी चर्म को हटा दिया जाए, तो मक्खी, कृमि, काग और गिद्धों से इसकी रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। यह शरीर अपवित्र ही नहीं है. बल्कि हजारों-हजार प्रक के भयंकर रोगों का घर भी है। इस शरीर में भयंकर रोग भरे पड़े हैं, इसीलिए तो शरीर को व्याधि का मन्दिर कहा जाता है। बुद्धिमान मनुष्य वह है, जो अशुचि भावना के चिन्तन और मनन से शरीर की गहित एवं निन्दनीय स्थिति को देखकर एवं जानकर, इसे भोग २१८ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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