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________________ अनगार धर्मामृत : १. ब्रह्मचारी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द के वैषयिक रसों का पान करने की इच्छा न करे। २. ब्रह्मचारी वह कार्य न करे, जिससे किसी भी प्रकार के लैंगिक विकार होने की सम्भावना हो। ३. कामोद्दीपक आहार का सेवन न करे। ४. स्त्री से सेवित शयन एवं प्रासन का उपयोग न करे। ५. स्त्रियों के अंगों को न देखे। ६. स्त्री का सत्कार न करे। ७. शरीर का संस्कार (शृंगार) न करे। ८. पूर्वसेवित काम का स्मरण न करे। ६. भविष्य में काम-क्रीड़ा करने की बात न सोचे। १०. इष्ट रूप आदि विषयों में मन को संसक्त न करे। इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल प्रागम और पागमकाल के बाद होने वाले श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्यों ने अपने-अपने समय में, गुप्ति और बाड़ों का विविध प्रकार से संक्षेप एवं विस्तार में, मूल प्रागमों का आधार लेकर वर्णन किया है। समाधि का अर्थ है--मन की शान्ति । गुप्ति का अर्थ है-विषयों की ओर जाते हुए मन का गोपन करना, मन का निरोध करना । समाधि और गुप्ति के अर्थ में ही मध्यकाल के अपभ्रंश साहित्यकारों ने बाड़ शब्द का प्रयोग किया है। अतः तीनों शब्दों का एक ही अर्थ है कि वह उपाय' एवं साधन, जिससे ब्रह्मचर्य की रक्षा भलीभाँति हो सके। इसके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए शास्त्रकारों ने कुछ अन्य उपाय भी बतलाए हैं, जिनका सम्यक परिपालन करने से ब्रह्मचर्य की साधना दुष्कर नहीं रहती। इन साधनों का अवलम्बन एवं सहारा लेकर साधक सरलता के साथ ब्रह्मचर्य की साधना कर सकता है। यद्यपि समाधि, गुप्ति एवं बाड़ों के नियमों में सभी प्रकार के उपायों का समावेश हो जाता है, तथापि एक अन्य प्रकार से भी ब्रह्मचर्य को स्थिर बनाने के लिए उपदेश दिया गया है, जिसे भावना कहा जाता है। यह भावनायोग द्वादश प्रकार का है। उस द्वादश प्रकार के भावना-योग में ब्रह्मचर्य से सविशेष रूप से सम्बन्धित अशुचि भावना का वर्णन मूल पागम में, उसके बाद प्राचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र' में, प्राचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' में और स्वामी कार्तिकेय विरचित 'द्वादशानुप्रेक्षा' में विस्तार के साथ किया गया है। मनष्य के मन में जो विचार उठता है, उसी को भावना एवं अनप्रेक्षा कहा जाता है। परन्तु प्रस्तुत में पारिभाषिक भावना एवं अनुप्रेक्षा का अर्थ है--किसी विषय पर पुनः पुनः चिन्तन करना, मनन करना, विचार करना । 'पुन: पुनश्चेतसि निवेशनं भावना' । आगम में शरीर की अशुचि का विचार इसलिए किया गया है, कि मनुष्य के मन में अपने या अन्य के सुन्दर रूप और सौन्दर्य पर आसक्ति-भाव न हो। क्योंकि शरीर ही ममता एवं आसक्ति का सबसे बड़ा केन्द्र है। मनुष्य जब किसी सुन्दर नारी के मोहक रूप एवं सौन्दर्य को देखता है, तब वह मुग्ध होकर अपने अध्यात्म-भाव को भूल जाता है। इसी प्रकार नारी भी किसी पुरुष के सौन्दर्य को देखकर मुग्ध बन जाती है। फलतः दोनों के मन में काम-राग की उत्पत्ति हो जाती है। इस स्थिति में ब्रह्मचर्य का परिपालन कैसे किया जा सकता है ? अस्तु, अपने एवं दूसरों के शरीर की आसक्ति एवं व्यामोह को दूर करने के लिए ही शास्त्रकारों ने अशुचि भावना का उपदेश दिया है। द्वादशानुप्रेक्षा: स्वामी कार्तिकेय ने अशुचि-भावना का वर्णन करते हुए लिखा है कि--हे साधक ! ब्रह्मचर्य : साधना का सर्वोच्च शिखर २६७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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