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एवं तर्क उपस्थित किए हैं, तो वे कतराने से लगते हैं और कहते हैं, "बात तो ठीक है, पर यह कैसे कहें कि अमुक प्रागम को हम शास्त्र नहीं मानते ! इससे समाज में बहुत हलचल मच जाएगी, rani की श्रद्धा खत्म हो जाएगी, धर्म का ह्रास हो जाएगा ।" मैं जब उनकी उक्त रुढ़चुस्त एवं भीरुता भरी बातें सुनता हूँ, तो मन जरा झुंझला उठता है—यह क्या कायरता है ? यह कैसी दुर्बल मनोवृत्ति है हमारे में ? हम समझते हैं कि बात सही है, पर कह नहीं सकते । चूँकि लोग क्या कहेंगे? मैं समझता हूँ--इसी दब्बू मनोवृत्ति ने हमारे आदर्शों को गिराया है, हमारी संस्कृति का पतन किया है। यही मनोवृत्ति वर्तमान में पैदा हुई शास्त्रों के प्रति अनास्था एवं धर्म विरोधी भावना की जिम्मेदार है ।
भगवद्-भक्ति या शास्त्र-मोह :
बहुत वर्ष पहले की बात है, मैं देहली में था । वहाँ के लाला उमरावमलजी एक बहुत अच्छे शास्त्रज्ञ, साथ ही तर्कशील श्रावक थे। उनके साथ प्रायः अनेक शास्त्रीय प्रश्नों पर चर्चा चलती रहती थी। एक बार प्रसंग चलने पर मैंने कहा - "लालाजी ! मैं कुछ शास्त्रों के सम्बन्ध में परम्परा से भिन्न दृष्टि रखता हूँ ! मैं यह नहीं मानता कि इन शास्त्रों का अक्षर-अक्षर भगवान् ने कहा है । शास्त्रों में कुछ अंश ऐसे भी हैं, जो भगवान् की सर्वज्ञता के साक्षी नहीं है । भूगोल -खगोल को ही ले लीजिए ! यह सब क्या है ?"
मैंने यह कहा तो लालाजी एकदम चौंके और बोले - "महाराज ! आपने यह बात कैसे कही ? ऐसा कैसे हो सकता है ?"
इस पर मैंने उनके समक्ष शास्त्रों के कुछ स्थल रखे, साथ ही लम्बी चर्चा की, और फिर उनसे पूछा - " क्या ये सब बातें एक सर्वज्ञ भगवान् की कही हुई हो सकती हैं ? हो सकती हैं, तो इनमें परस्पर संगतता एवं विरोध क्यों है ? सर्वज्ञ की वाणी कभी असंगत नहीं हो सकती, और यदि असंगत है, तो वह सर्वज्ञ की वाणी नहीं हो सकती ।"
लालाजी बुजुर्ग होते हुए भी जड़ मस्तिष्क नहीं थे, श्रद्धा प्रधान होते हुए भी तर्कशून्य नहीं थे। उन्होंने लम्बी तत्त्वचर्चा के बाद अन्त में मुक्त मन कहा- "महाराज ! इन चाँद-सूरज के शास्त्रों से भगवान् का सम्बन्ध जितना जल्दी तोड़ा जाए, उतना ही अच्छा है। वर्ना इन शास्त्रों की श्रद्धा बचाने गए, तो कहीं भगवान् की श्रद्धा से ही हाथ न धो बैठें !
मैं आपसे भी यही पूछा चाहता हूँ कि आप इन चंद्र, सूर्य, सागर एवं सुमेरु की चर्चा करने वाले शास्त्रों को महत्त्व देना चाहते हैं या भगवान् को ? आपके मन में भगवद्-भक्ति का उद्रेक है या शास्त्र का मोह ?
आप कहेंगे, शास्त्र नहीं रहा, तो भगवान् का क्या पता चलेगा ? शास्त्र ही तो भगवान् का ज्ञान कराते हैं ।
ara ठीक है, शास्त्रों से ही भगवान् का ज्ञान होता है । परन्तु कौन से शास्त्रों से ? हम आत्मा हैं और भगवान् परमात्मा हैं । ग्रात्मा परमात्मा में क्या अन्तर है ? अशुद्ध और शुद्ध स्थिति का ही तो अन्तर है । आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही भगवान् है, भगवान् का स्वरूप है। इस प्रकार भगवान् का स्वरूप आत्मस्वरूप से भिन्न नहीं है। और जो शास्त्र श्रात्मस्वरूप का ज्ञान कराने वाला , आत्मा से परमात्मा होने का मार्ग बनाने वाला है, जीवन की पवित्रता और श्रेष्ठता का पथ दिखाने वाला है, वास्तव में वही धर्मशास्त्र है, और उसी धर्मशास्त्र की हमें वश्यकता है । किन्तु इसके विपरीत जो शास्त्र श्रात्मस्वरूप की जगह आत्म-विभ्रम की विरूपता खड़ी कर देता है, हमें अन्तर्मुख नहीं, अपितु बहिर्मुख बनाता है, उसे शास्त्र की कोटि में रखने से क्या लाभ है ? वह तो उलटा हमें भगवत् श्रद्धा से दूर खदेड़ता है, मन को शंकाकुल बनाता है, और प्रबुद्ध लोगों को हमारे शास्त्रों पर, हमारे भगवान् पर अँगुली उठाने का मौका देता है। आप तटस्थ दृष्टि से देखिए कि ये भूगोल- खगोल सम्बन्धी चर्चाएँ, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत और समुद्र आदि के लम्बे-चौड़े वर्णन करने वाले शास्त्र हमें श्रात्मा को बन्धन मुक्त करने के लिए क्या प्रेरणा देते हैं ? ग्रात्मविकास का कौन-सा मार्ग दिखाते
धर्म की परख का श्राधार
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