SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसी यथार्थ सत्य का उपदेश करते हैं। आत्मा की मुक्ति के साथ जिसका प्रत्यक्ष या पारम्परिक कोई सम्बन्ध नहीं है, उसका उपदेश भगवान् कभी नहीं करते। यदि उसका भी उपदेश करते हैं, तो उनकी प्राप्तता में दोष आता है ।" यह एक बहुत सच्ची कसौटी है, जो प्राचार्य प्रभयदेव ने हमारे समक्ष प्रस्तुत की है। इससे भी पूर्व लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी के महान् तार्किक, जैन तत्त्वज्ञान को दर्शन का रूप देनेवाले प्राचार्य सिद्धसेन ने भी शास्त्र की एक कसौटी निश्चित करते हुए कहा था- "जो वीतराग - प्राप्त पुरुषों के द्वारा जाना परखा गया है, जो किसी अन्य वचन 'द्वारा अपदस्थ हीन नहीं किया जा सकता और जो तर्क तथा प्रमाणों से खण्डित नहीं हो सकने वाले सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है, जो प्राणिमात्र के कल्याण के निमित्त से सार्व अर्थात् सार्वजनीन - सर्वजन हितकारी होता है एवं अध्यात्म साधना के विरुद्ध जाने वाली विचार सरणियों का निरोध करता है-वही सच्चा शास्त्र है ।" तार्किक आचार्य ने शास्त्र की जो कसौटी की है, वह आज भी अमान्य नहीं की जा सकती । वैदिक परम्परा के प्रथम दार्शनिक कपिल एवं महान् तार्किक गौतम ने भी जब शब्द को प्रमाण कोटि में माना, तो पूछा गया -- शब्द प्रमाण क्या है ? तो कहा- 'प्राप्त का उपदेश शब्द प्रमाण है !' प्राप्त कौन है ? तत्त्व का यथार्थ उपदेष्टा प्राप्त है। जिसके वचन में पूर्वापर विरोध, प्रसंगति - विसंगति नहीं होती, और जो वचन प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों 'विरुद्ध नहीं जाता, खण्डित नहीं होता-- वही प्राप्त वचन है । आचार्य के उक्त कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि किसका, क्या वचन मान्य हो सकता है, और क्या नहीं। जो वचन नहीं है, सत्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है, वह भले कितना ही विराट् एवं विशाल ग्रन्थ क्यों न हो, उसे 'प्राप्त वचन' कहने से इन्कार कर दीजिए। इसी में प्राप्त की, और की प्रामाणिकता है, प्रतिष्ठा है। "श्राप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्वोपदेशकृत्सार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम् ।। हम स्वयं निर्णय करें : तर्कशास्त्र की ये सूक्ष्म बातें मैंने आपको इसलिए बताई है कि हम अपनी प्रज्ञा को जागृत करें और स्वयं परखें कि वस्तुतः शास्त्र क्या है, उसका प्रयोजन क्या है ? और फिर यह भी निर्णय करें कि जो अपनी परिभाषा एवं प्रयोजन के अनुकूल नहीं है, वह शास्त्र, शास्त्र नहीं है । उसे और कुछ भी कह सकते हैं --ग्रन्थ, रचना, कृति कुछ भी कहिए, पर हर किसी ग्रन्थ को भगवद्-वाणी या प्राप्त वचन नहीं कह सकते । शास्त्र की एक कसौटी, जो उत्तराध्ययन सूत्र से मैंने आपको बतलाई है, जिसमें कहा गया है— तप, क्षमा एवं अहिंसा की प्रेरणा जगाकर श्रात्मदृष्टि को जागृत करने वाला शास्त्र है । यह इतनी श्रेष्ठ और सही कसौटी है कि इसके आधार पर भी यदि हम वर्तमान में शास्त्रों का निर्णय करें, तो बहुत ही सही दिशा प्राप्त कर सकते हैं । बहुत से जिज्ञासु और मेरे साथी मुनियों के समक्ष मैंने जब भी कभी अपने ये विचार २२२ १. नहि प्राप्तः साक्षाद् पारंपर्येण वा यत्र मोक्षाङ्गं तद् प्रतिपादयितुमुत्सहते अनाप्तत्व-प्रसंगात् । - प्राचार्य अभयदेव, भगवती वृत्ति, १1१ २. न्यायावतार, ६ ३. श्राप्तोपदेश: शब्द: – सांख्यदर्शन १1१०१ -न्यायदर्शन १1१1७ प्राप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा । --- यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापययिषा प्रयुक्त उपदेष्टा. Jain Education International ।—न्यायदर्शन वात्स्यायन भाष्य For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ख धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy