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________________ से ही समभावपूर्वक गुजरना है। कहीं अटकना नहीं है। स्वर्ग की लुभावनी सुषमा और नरक की दारुण यातना—दोनों पर ही विजय पाकर हमें अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाना है। सर्वत्र हमें अपने प्रकाश-दीप-सम्यक्-दर्शन को छोड़ना नहीं है। सम्यक्-दर्शन ही हमारे मार्ग का दीपक है। एक जैनाचार्य ने तो यहां तक कहा है कि यदि कोई यह शर्त रखे कि तुम्हें स्वर्ग मिलेगा, और दूसरी ओर यह बात कि यदि सम्यक्-दर्शन पाते हैं तो नरक की ज्वाला में जलना होगा, उसकी भयंकर गन्दगी में सड़ना पड़ेगा, तो हमें इन दोनों बातों में से दूसरी बात ही मंजूर हो सकती है। मिथ्यात्व की भूमिका में स्वर्ग भी हमारे किसी काम का नहीं, जबकि सम्यक-दर्शन के साथ नरक भी हमें स्वीकार है। प्राचार्य की इस उक्ति में लक्ष्य के प्रति कितना दीवानापन है ! निछावर होने की कितनी बड़ी प्रबल भावना है ! इसके पीछे सैद्धान्तिक दृष्टिकोण, जिसे कि प्राचार्यों ने कहा है--वह यह है कि हमें नरक और स्वर्ग से, सुख और दुःख से कोई प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन तो परमात्मशक्ति के दर्शन से है । या यों कहिए कि आत्मशक्ति के दर्शन से है, सम्यक-दर्शन से है । जीवन की यात्रा में सुख-दुःख यथाप्रसंग दोनों आते हैं, परन्तु हमें इन दोनों से परे रहकर चलने की आवश्यकता है। यदि मार्ग में कहीं विश्राम करना हो, तो कोई बात नहीं, कुछ समय के लिए अटक गए, विश्राम किया, किन्तु फिर आगे चल दिए। कहीं डेरा डाल कर नहीं बैठना है। चलते रहना ही हमारा मन्त्र है। ब्राह्मण ग्रन्थों में एक मन्त्र आता है "....चरवेति, चरैवेति ।" चलते रहो, चलते रहो । कर्तव्य पथ में सोने वाले के लिए कलियुग है, जागरण की अंगडाई लेने वाले के लिए द्वापर है, उठ बैठने वाले के लिए त्रेता है और पथ पर चल पड़ने वाले के लिए सतयुग है, इसलिए चलते रहो, चलते रहो। चलते रहने वाले के लिए सदा सतयुग रहता है । संसार में यदि कोई कहीं डेरा जमाना भी चाहे, तो महाकाल किसी को कहाँ जमने देता है ? तो फिर कहीं उलझने की चेष्टा क्यों की जाए ? जीवन में सुख के फूलों और दुःख के काँटों में उलझने की जरूरत नहीं है, इन सबसे निरपेक्ष होकर आत्मशक्ति को जागृत किए चलना है। प्रात्मशक्ति का जागरण जब होगा, तब अपने प्रति अपना विश्वास जगेगा। प्रात्मा के अन्तराल में छिपी अनन्त शक्तियों के प्रति निष्ठा पैदा होने से ही प्रात्मशक्ति का जागरण होता है। जैन-सूत्रों में ऐसा वर्णन आता है कि प्रात्मा के एक-एक प्रदेश पर कर्मों की अनन्तानन्त वर्गणाएँ छाई हुई हैं। अब देखिए कि प्रात्मा के असंख्य प्रदेश हैं, और प्रत्येक प्रदेश पर अनन्तानन्त कर्म वर्गणाएँ चिपकी बैठी हैं। मनुष्य अवश्य ही घबरा जाएगा कि किस प्रकार मैं कर्मों की अनन्त सेना से लड़ सकेंगा? और, कैसे इन बन्धनों को तोड़ कर मुक्त बन सर्केगा? किन्तु, जब वह अपनी प्रात्मशक्ति पर विचार करेगा, तो अवश्य ही उसका साहस बढ़ जाएगा। जैन-दर्शन ने बताया है कि जिस प्रकार एक पक्षी पंखों पर लगी धूल को पंख फड़फड़ा कर एक झटके में दूर कर देता है, उसी प्रकार साधक भी अनन्तानन्त कर्म बन्धनों को, एक झटके में तोड़ सकता है। पलक मारते ही, जैसे पक्षी के पंखों की धूल उड़ जाती है, त्यों ही आत्म-विश्वास जागत होते ही, कर्म-वर्गणा की जमी हुई अनन्त तहें एक साथ ही साफ हो जाती है। आज के वैज्ञानिक युग में तो इस प्रकार का संदेह ही नहीं करना चाहिए कि कुछ ही क्षणों में किस प्रकार अनन्त कर्म बन्धन छूट सकते हैं, जबकि विज्ञान के क्षेत्र में पलक मारते ही संसार की परिक्रमा करने वाले राकेट, और क्षण भर में विश्व को भस्मसात करने वाले बमें का आविष्कार हो चुका है। यांत्रिक वस्तुओं की क्षमता तो सीमित है, परन्तु आत्मा की शक्ति अनन्त है, उसकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है। अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान में यह शक्ति है कि वह एक मिनट के असंख्यातवें भाग में भी सुदूर विश्व का ज्ञान प्रात्म-जागरण २०७ Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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