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________________ परीक्षण नहीं किया जाए, तब तक उनकी वास्तविकता नहीं खुलती । साधक जब दूर-दूर तक अपनी दृष्टि को ले जाता है और देख लेता है कि अब परमात्मा की छवि में और मेरी छवि में कोई भेद नहीं दीखता है, तो फिर वह लौटकर अपने अन्दर में समा जाता है। वह बाहर से भीतर प्रा जाता है, स्थूल से सूक्ष्म की ओर आ जाता है और तब वह 'नमस्तुभ्यं' की जगह 'नमो' की धुन लगा बैठता है । लक्ष्य की ओर : साधकों के जीवनवृत्त से और उनकी समस्याओं से मालूम होता है कि हर एक साधक के लिए यह सरल नहीं है कि वह झटपट 'नमस्तुभ्यं' से मुड़कर 'नमो मह्यं' की ओर आ जाए। शास्त्रों में इन दोनों ही विषयों की चर्चा की गई है। हमारे पास धर्म-शास्त्र, पुराण, आगम प्रकरण आदि की कोई कमी नहीं है, उनका बहुत बड़ा विशाल भण्डार है । साधारण साधक की बुद्धि तो उसमें उलझ ही जाती है, उसके लिए शास्त्र एक बीहड़ जंगल के समान हो जाता है । पृथ्वी के जंगलों की एक सीमा होती है, किन्तु शब्दों और शास्त्रों के महावन की कोई सीमा नहीं है । इस असीम कानन में हजारों यात्री भटक गए हैं, नए यात्री भटकते हैं सो तो है ही, किन्तु पुराने और अनुभवी कहे जाने वाले साधक भी कभी-कभी दिग्मूढ़ हो जाते हैं । शास्त्रों में उदाहरण आता है कि कोई-कोई साधक चौदह पूर्व का ज्ञान पाकर भी इस शास्त्र वन में भटक जाते हैं। आचार्य शंकर ने कहा है "शब्दजालं महारण्यं, चित्तभ्रमण कारणम् ।" शब्दों का यह महावन इतना भयंकर है कि एक बार भटक जाने के बाद निकलना कठिन हो जाता है । इसलिए हमें शास्त्रचर्चा की अपेक्षा अनुभव की बात करनी चाहिए । भक्ति मार्ग एक उपबन है, जिसमें घूमने के लिए सहज आकर्षण रहता है, लेकिन हमेशा ही बगीचे में घूमते रहना तो उपयुक्त नहीं है । पड़ोसी से बात करने के लिए जब कोई घर का द्वार खोलकर बाहर जाता है, तो वह बाहर ही नहीं रह जाता, बल्कि लौटकर पुनः घर में श्राता है । इसी प्रकार प्राध्यात्मिक जगत् में भी हमारी स्थिति सिर्फ बाहर चक्कर लगाते रहने की ही नहीं है, हमें लौटकर अपने घर में श्राना चाहिए। चिरकाल तक बाहर घूमे है, अतः हम अपने घर में भी अनजाने से हो गए हैं। इसके लिए आत्मज्ञान की लौ जगाकर अपने घर को देखना होगा । आत्म-विश्वासपूर्वक अपनी अनन्त शक्तियों का ज्ञान करना होगा । मंजिल और मार्ग : सबसे पहले यह जानना होगा कि हमारी मंजिल क्या है ? और, उसका मार्ग क्या है ? हमें कहाँ जाना है, और जा कहाँ रहे हैं, यह निर्धारित करना होगा । हमारी सबसे ऊँची मंजिल है परमात्मपद ! वह अन्तिम अनन्त शिखर -- जहाँ पहुँचने के बाद वापिस नहीं लौटना होता । अन्तर्मुख साधना के महान् पथ पर हमें तब तक चलना है, जब तक कि मंजिल को नहीं पा लें । हम यात्री हैं, जिनको सतत चलना ही चलना होता है, बीच में कहीं विश्राम नहीं होता । महाकवि जयशंकर प्रसाद ने ठीक ही कहा है--- रहना । नहीं ।" मार्ग में सतत चलना है, जबतक कि अपना लक्ष्य नहीं आ जाए। कहीं हरे-भरे उपवन महकता भी आएगी और कहीं सूखे पतझड़ की उद्विग्नता भी । किन्तु हमें दोनों मार्गों २०६ "इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रांत भवन में टिक किन्तु, पहुँचना उस सीमा पर, जिसके श्रागे राह Jain Education International For Private & Personal Use Only पन्ना समिक्ar धम्मं www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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