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________________ नहीं है। स्पष्ट है कि साधना का जो भी मार्ग है, वह हमारे अन्दर से ही जागृत होगा । उस पर किसी जाति, रंग या सम्प्रदाय की कोई मोहर नहीं लगी है। किसी मत और किसी पन्थ का सिक्का उस पर नहीं है । साधना का आधार : आत्मा साधना आत्मा की वस्तु है, आत्मा को स्पर्श करके ही वह चलती है। वह एक मछली की तरह है, जो हमेशा आत्मा के सरोवर में तैरती रहती है। उसे यदि वहाँ से हटाकर भौतिक जगत् में रखने का प्रयत्न किया जाता है, तो वह छटपटा कर खत्म हो जाती है। बाह्य सतह पर वह जीवित नहीं रह सकती।। आप जानते हैं. जैन-धर्म का क्या अर्थ है? जैन धर्म का अर्थ है-जिन का धर्म! जिन कौन हैं ? क्या 'जिन' नाम का कोई खास महापुरुष, राजा, चक्रवर्ती या देव हुमा है ? नहीं ! 'जिन' किसी व्यक्ति का नाम नहीं, वह तो प्रात्मा की एक निर्विकार शुद्ध स्थिति है। अतः जिन एक नहीं, असंख्य नहीं, अनन्त हो गए हैं। जिस आत्मा की साधना अपने लक्ष्य पर पहुँची, वीतराग भाव का पूर्ण विकास हुआ कि वह जिन हो गया। जिनत्व का कहीं बाहर से आयात नहीं करना पड़ता है, वह तो आत्मा में ही छिपा रहता है। जैसे ही कषाय, मोह, मात्सर्य का पर्दा हटा कि जिनत्व जागृत हो जाता है। जैन साहित्य में एक कहानी पाती है—एक राजा था, कला का बड़ा रसिक था वह। उसके राज्य में कलाकारों का बहत सम्मान था। नई-नई चित्र-शैलियाँ उसके समय में विकास पा रही थीं। राजा का विचार हुआ कि एक 'चित्रशाला' बनवाई जाए, पर वह ऐसी अद्भुत हो कि संसार भर में उसके जोड़ की कोई दूसरी चित्रशाला न मिले । उसमें कल्पना का कमनीय कौशल हो, रंगों का सतरंगी जादू हो। बस, कला की उत्कृष्टतम कृति हो वह चित्रशाला। राजा ने दो सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों को बुलाया और अपनी इच्छा प्रकट की। साथ में एक शर्त भी जोड़ दी कि दोनों के चित्र सर्वोत्कृष्ट होने चाहिए, किन्तु चित्र और शैली दोनों की एक समान हो। रंगों का मिश्रण भी एक समान हो और एकदसरे के चित्र कोई देखने न पाए! आप कहेंगे. बिल्कुल असम्भव ! लेकिन, असम्भव को संभव बनाने वाला ही तो सच्चा कलाकार होता है। चित्रकारों को छह महीने का समय दिया गया, और दोनों ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया। बुद्धि, हृदय और शक्ति का सामञ्जस्य करके जुट गए दोनों। कला में प्राग तभी आ पाता है, जब उसमें बुद्धि के नए-नए उन्मेष खुले हों, भावनाओं का स्पंदन हो और हाथ में कौशल एवं सफाई का निखार हो। कला में जब तक बुद्धि एवं हृदय का संतुलन नहीं होता, तब तक वह कला नहीं, सिर्फ कर्म होता है, उसका कर्ता कलाकार नहीं, कर्मकार कहलाता है। जब उसमें बुद्धि का योग होता है, तो वह कर्म शिल्प कहलाता है और वह व्यक्ति शिल्पकार होता है। जब कर्म में हृदय भी जुड़ जाता है, तब वह कर्म कला बन जाता है, और उस व्यक्ति को 'कलाकार' कहा जाता है। तो बात यह हुई कि उन कलाकारों ने अपना हृदय भी उस कला में उड़ेल दिया, बुद्धि का तेज भी उसमें भर दिया, तूलिका का चमत्कार तो था ही! छह महीने तक दोनों अपने-अपने ढंग से, बिना एक-दूसरे से मिले, बीच में पर्दा डाले, ठीक आमने-सामने की दीवारों पर अपने कार्य में जुटे रहे। समय पूर्ण हुआ, तो दोनों ने ही राजा से चित्रशाला में पधार कर कला का निरीक्षण करने की प्रार्थना की। राजा अपने महामात्य एवं अधिकारियों के साथ चित्रशाला में गया। पहले चित्रकार की कला देखी. तो राजा का हृदय बाग-बाग हो गया। राजा ने चित्रकार की बहत प्रशंसा की। नयी शैली में, नये रंगों में, भावों की ऐसी सुन्दर अभिव्यक्ति, राजा ने पहले कभी नहीं देखी थी। अब दूसरे कलाकार ने निवेदन किया-"महाराज! जरा इधर भी कृपा-दृष्टि की जाए।" राजा जब उसके कक्ष में पहुँचा, तो दंग रह गया। पूछा-"चित्रकार! यह कल्याण का ज्योतिर्मय पथ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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