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________________ वाली थी न ! आखिर भेद को मिटा कर अभेद करानेवाली होती है न सूई! कोई परिचित सज्जन उधर से निकला, बुढ़िया को सड़क पर कुछ खोजते हुए देखा, तो पूछा--'दादी ! क्या खोज रही हैं ?' 'बेटा सूई गिर गई है, उसे खोज रही हूँ।' --बुढ़िया ने अपनी समस्या बताई। आगन्तुक ने सोचा, बेचारी बढ़िया परेशान है। मैं ही क्यों न खोज दं। उसने इधर-उधर बहुत खोजा, पर सूई न मिली। आखिर पूछा---'दादी! कहाँ खोई थी सूई ? किधर गिरी थी? बुढ़िया ने कहा-"बेटा ! गिरी तो अन्दर थी, लेकिन अन्दर प्रकाश नहीं था, इसलिए सोचा, चलो प्रकाश में खोज लं, प्रकाश में कोई भी चीज दिखाई पड़ जाती है।" आगन्तुक ने यह सुना, तो बड़े जोर से हँस पड़ा, कहा--"दादी ! सूई घर में खोई है, तो सड़क पर ढूंढने से क्या फायदा? जहाँ खोई है, वहीं तो मिलेगी न!" इस उदाहरण से भी यही ज्ञात होता है कि जहाँ हम भूल कर रहे हैं, वहीं पर समाधान भी ढूंढ़ना चाहिए। यह नहीं कि भूल कहीं, खोज कहीं ! कहीं हम भी बुढ़िया की तरह मूर्ख तो नहीं बन रहे है ? मनुष्य अन्दर से प्रशान्त है, व्याकुलता अनुभव कर रहा है, अपने को खोया-खोयासा अनुभव कर रहा है। अब यदि वह अशान्ति का समाधान शान्ति के द्वारा करना चाहता है, अपना जो 'निज' है, उसे पाना चाहता है, तो उसे अपने अन्तर्मन में ही खोजना चाहिए, या बाहर में ? घर में यदि अन्धेरा है, तो वहाँ दीपक जलाकर प्रकाश करना चाहिए। दूसरी जगह भटकने से तो वह भटकता ही रह जाएगा ! तो हमारे इस प्रश्न का, जो कि हमने प्रारम्भ में ही उठाया है--कि कल्याण और उन्नति का मार्ग क्या है ? उसका समाधान भी अपने अन्तर् में ही ढूढना चाहिए ! थोड़ी-सी गहराई में उतर कर यदि हम देखेंगे, तो इसका उत्तर आसानी से मिल जाएगा। तम्हारे कल्याण का मार्ग त अन्तर् में ही है। तुम्हारे द्वारा ही तुम्हारी उन्नति हो सकती है। गीता के शब्दों में'उद्धरेदात्मनात्मानं' अर्थात् अपने से अपना उत्थान करो। और भगवान् महावीर की वाणी में भी अप्पाणमेवमप्पाणं.----मात्मा से आत्मा का कल्याण करना चाहिए ---- यही सून ध्वनित होता है। तात्पर्य यह है कि कल्याण और उन्नति के लिए हमारी अन्तरंग साधना, सत्य, शील एवं सदाचार ही कारण बन सकते हैं। जब यह साधना का मार्ग और उसका मर्म, हम समझ लेंगे, तो फिर हमें बाहर भटकना नहीं पड़ेगा। असत्य' का समाधान सत्य के द्वारा मिलता है। जैसा कि बद्ध ने कहा है- 'सच्चेणालीकवादिनं'-सत्य से असत्य को पराजित करो। हिंसा और वैर का प्रवाह हमारे मन में उमड़ रहा हो, तो उसे रोकने के लिए अहिंसा और निर्वैर (क्षमा) की चट्टानें खड़ी करनी पड़ेंगी। लोभ और वासनाओं का दावानल यदि भड़क रहा है, तो उसकी शान्ति के लिए सन्तोष रूपी जलवृष्टि की जरूरत है। यदि आपके अन्तर में अभिमान जग रहा है, तो विनय धारण कीजिए, और यदि हीनता जन्म ले रही है, तो 'आत्म गौरव' का भाव भरिए। कषायों की जो अग्नि है, वह अकषाय के जल के बिना बुझेगी कैसे ? आगम में कहा है "कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुय-सील-तवो जलं" श्री केशीकुमार श्रमण, गौतम स्वामी से पूछ रहे हैं कि--"एक भयंकर अग्नि संसार में धधक रही है, उसकी प्रचण्ड ज्वालाओं से संसार दग्ध हो रहा है, उस अग्नि को आप कैसे बुझाते हैं ? उसे बुझाने का उपाय क्या है ?" गौतम उत्तर में कहते है, "मैं उस अग्नि को जल से बुझाता हूँ।" केशीकुमार फिर पूछते है-"वह कौन-सा जल है ?" तो गौतम कहते हैं, “कषाय भयंकर' अग्नि है, यह मनुष्य के अन्तर् में प्रज्वलित हो रही है, उसको शान्त करने के लिए सम्यक्-श्रुत, शील और तप-संयम का जल अपेक्षित है।" हाँ, उस जल का निर्झर् भी हमारे अन्तर् में ही बह रहा है, उसे कहीं बाहर खोजने की जरूरत १६२ पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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