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________________ ६ राग का ऊर्ध्वकरण आध्यात्मिक साधना के सम्बन्ध में, धर्म के विधि-निषेध एवं मर्यादा के सम्बन्ध में सोचते हुए हमने कुछ भूलें की हैं। अनेक प्रकार की भ्रांतियों से हमारा चिंतन दिग्मूढ़-सा हो गया है. ऐसा मुझे कभी-कभी लगता है । साधना का प्रवाह उस झरने की भांति अपने मूल उद्गम पर बहुत ही निर्मल और स्वच्छ था, किन्तु ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया, उसमें भ्रांतियों का कूड़ा-कचरा मिलता गया और प्रवाह में एक प्रकार की मलिनता आती गई । आज उसका गेंदला पानी देख कर कभी-कभी मन चौंक उठता है और सोचने को विवश हो जाता है कि क्या यह कूड़ा-कचरा निकाला नहीं जा सकता ? इस प्रवाह की पवित्रता और निर्मलता को कचरा कब तक ढँके रखेगा ? इस सम्बन्ध में समय-समय पर बहुत कुछ कहता रहा हूँ। इसके लिए पास-पड़ोस की दूसरी परम्परायों और चिंतन - शैलियों की टीका-टिप्पणी भी मैं करता रहा हूँ, उनकी मलिनता पर चोट करने से भी मैं नहीं हिचकता । परन्तु इसकी पृष्ठभूमि में मेरी कोई सांप्रदायिक ग्रह या दुराग्रह की मनोवृत्ति नहीं है । यही कारण है कि भूलों एवं भ्रान्तियों के लिए अपनी साम्प्रदायिक परम्परा और विचारधारा पर भी मैंने काफी कठोर प्रहार किए हैं। विचार - प्रवाह में जहाँ मलिनता हो, उसे छिपाया नहीं जाए, फिर वह चाहे अपने घर में हो या दूसरे घर में । मैं इस विषय में बहुत ही तटस्थता से सोचता हूँ और मलिनता के प्रक्षालन में सदा उन्मुक्त भाव से अपना योग देता रहा हूँ । साधना में द्वैध क्यों ? हमें सोचना है कि जिसे हम साधना कहते हैं, वह क्या है ? जिसे हम धर्म समझते हैं, वह क्या है ? वह कहाँ है ? किस रूप में चल रहा है और उसे किस रूप में चलना चाहिए ? एक सबसे विकट बात तो यह है कि हमने साधना को अलग-अलग कठघरों में खड़ा कर दिया है। उसके व्यक्तित्व को, उसकी आत्मा को विभक्त कर दिया है। उसको समग्रता के रूप में हमने नहीं देखा । टुकड़ों में देखने की आदत बन गई है । लोग घर में कुछ अलग तरह की जिन्दगी जीते हैं, परिवार में कुछ अलग तरह की घर के जीवन ar रूप कुछ और है और मंदिर, उपाश्रय, धर्म-स्थानक के जीवन का रूप कुछ और ही है। वे अकेले में किसी और ढंग से जीते हैं और परिवार एवं समाज के बीच किसी दूसरे ढंग से। मैंने देखा है, समाज बीच बैठकर जो व्यक्ति फूल की तरह मुस्कराते हैं, फव्वारे की तरह प्रेम की फुहारें बरसाते हैं, वे ही घर में श्राकर रावण की तरह रौद्र बन जाते हैं । क्रोध की आग उगलने लगते हैं । धर्म स्थानक में या मंदिर में जिन्हें देखने से लगता है कि ये बड़े त्यागी - वैरागी हैं, भक्त हैं, संसार से इन्हें कुछ लेना-देना नहीं, निस्पृहता इतनी है कि जैसे अभी मुक्ति हो जाएगी, वे ही व्यक्ति जब वहाँ से बाहर निकलते हैं, तो उनका रूप बिल्कुल ही बदल जाता है, धर्म की छाया तक उनके जीवन पर दिखाई नहीं देती । मैं सोचता हूँ, यह क्या बात है ? जीवन पर इतना द्वैध क्यों आ गया ? साधना में यह बहुरूपियापन क्यों चल पड़ा ? लगता है, इस सम्बन्ध में सोचने-समझने की कुछ भूलें राग का ऊर्ध्वकरण १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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