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________________ वैष्णव परम्परा में एक कथा आती है--एक दुराचारी वन में किसी वृक्ष के नीचे सोया था। वहीं सोये-सोये उसके हाथ-पैर ठंडे पड़ गए और प्राण कूच कर गए। वृक्ष की टहनी पर एक चिड़िया बैठी थी, उसने दुराचारी के मस्तक पर बीट कर दी। इधर दुराचारी की आत्मा को लेने के लिए सम के दूत पाये, तो उधर विष्णु के दूत भी आ पहुँचे। यमदूतों ने कहा---यह दुराचारी था, इसलिए इसे नरक में ले जाएंगे। इस पर विष्णु के दूत बोलेचाहे कितना ही दुराचारी रहा हो, पर इसके माथे पर तिलक लगा है, इसलिए यह स्वर्ग का अधिकारी हो गया। दोनों दूतों में इस पर खूब गर्मागर्म बहसें हुई, लड़े-झगड़े, आखिर विष्णु के दूत उसे स्वर्ग में ले ही गए। दुराचार-सदाचार कुछ नहीं, केवल तिलक ही सब-कुछ हो गया, वही बाजी मार ले गया। तिलक भी विचारपूर्वक कहाँ लगा? वह तो चिड़िया की बीट थी। कुछ भी हो तिलक तो हो गया? सोचता हूँ, इन गल्पकथानों का क्या उद्देश्य है ? जीवन-निर्माण की दिशा में इनकी क्या उपयोगिता है ? मस्तक पर पड़ी एक चिड़िया की बीट को ही तिलक मान लिया गया, तिलक होने मात्र से ही दुराचारी की आत्मा को स्वर्ग का अधिकार मिल गया ! धर्म की तेजस्विता और पवित्रता का इससे बड़ा और क्या उपहास होगा? इस प्रकार की एक नहीं, सैकड़ों, हजारों अन्ध-मान्यताओं से धार्मिक-मानस ग्रस्त होता रहा है। जहाँ तोते को राम-राम पढ़ाने मात्र से वेश्या को वैकुण्ठ मिल जाता है, सीता को चुराकर राम के हाथ से मारे जाने पर रावण की मुक्ति हो जाती है, वहाँ धर्म के प्रान्तरिक स्वरूप की क्या परख होगी? । धर्म के ये कुछ रूढ़ रूप हैं, जो बाहर में अटके हुए हैं, और मानव-मन इन्हीं की भूलभुलैय्या में भटक रहा है। हम भी, हमारे पड़ोसी भी, सभी एक ऐसे दल-दल में फंस गए हैं कि धर्म का असली किनारा आँखों से प्रोझल हो रहा है और जो किनारा दिखाई दे रहा है, वह सिर्फ अन्ध-विश्वास और गलत मान्यताओं की शैवाल से ढका हुआ अथाह गर्त है। बौद्ध परम्परा में भिक्षु को चीवर धारण करने का विधान है। चीवर का मतलब है, जगह-जगह पर सिला हुआ जीर्ण वस्त्र, अर्थात् कन्था ! इसका वास्तविक अर्थ तो यह था कि जो फटा-पुराना वस्त्र गृहस्थ के लिए निरुपयोगी हो गया हो, वह वस्त्र भिक्षु धारण करे। पर, आज क्या हो रहा है ? अाज भिक्षु बिल्कुल नया और सुन्दर वस्त्र लेते हैं, बढ़िया रेशमी ! फिर उसके टुकड़े-टुकड़े करते हैं, और उसे सीते हैं, और इस प्रकार चीवर की पुरानी व्यवस्था को कायम रखने के लिए उसे चीवर मान कर प्रोढ़ लेते हैं। धर्म की अन्तर्दष्टि : ये सब धर्म को बाहर में देखने वालों की परम्पराएँ हैं। वे बाहरी क्रिया को, रीतिरिवाज, पहनाव और बनाव आदि को ही धर्म समझ बैठे हैं, जबकि ये तो एक सभ्यता और कुलाचार की बातें हैं। बाहर में कोई नग्न रहता है, या श्वेत वस्त्र धारण करता है, या गेंरुषां चीवर पहनता है, तो धर्म को इनसे नहीं तोला जा सकता। वेषभूषा, बाहरी व्यवस्था और बाहरी क्रियाएँ कभी धर्म का पैमाना नहीं हो सकती। इनसे जो धर्म को तोलने का प्रयत्न करते हैं, वे वैसी ही भूल कर रहे हैं, जैसी कि मणिमुक्ता और हीरों का वजन करने के लिए पत्थर और कोयला तोलने के काँटे का इस्तेमाल करने वाला करता है। धर्म का दर्शन करने की जिन्हें जिज्ञासा है, उन्हें इन बाहरी आवरणों को हटाकर भीतर में झाँकना होगा। क्रिया-काण्डों की बाह्य भूमिका से ऊपर उठ कर जीबन की प्रान्तरिक भूमिका तक चलना होगा। प्राचार्य हरिभद्र ने कहा है जीवन परिबोध का मार्ग : धर्म १०६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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