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________________ सदाचारमय जीवन हो, यही धर्म है। श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी इस तथ्य को एक स्वर से स्वीकार करते हैं, कोई आनाकानी नहीं है। प्रश्न है, फिर झगड़ा क्या है ? किस बात को लेकर द्वन्द्व है, संघर्ष है ? ___मैं सोचता हूँ, यदि एक-दूसरे को ठीक से अन्दर में समझने का प्रयत्न किया जाता, तो विवाद जैसा कोई प्रसंग ही नहीं था। पर, विवाद हुआ धर्म को बाहर में देखने से। श्वेताम्बर मुनि वस्त्र रखते हैं, तो क्या यह अधर्म हो गया? इसके लिए तर्क है कि वस्त्र आत्मा से भिन्न बाहर की पौदगलिक चीज है, अत: वह परिग्रह है, और यदि परिग्रह है. तो फिर साधता कैसी? परन्तु उधर दिगम्बर मुनि भी तो कुछ वस्तुएँ रखते हैं—मोरपिच्छी, कमण्डल, पुस्तक आदि । इसके लिए कहा जाता है कि इन पर हमारी ममता नहीं है, जीवरक्षा एवं शरीर शुद्धि प्रादि के लिए ही यह सब है, इसलिए यह अधर्म नहीं है, तो मैं सोचता हूँ यदि यही बात वस्त्र के सम्बन्ध में भी समझ ली जाती, तो क्या हर्ज था? श्वेताम्बर मुनि भी तो यही बात कहते हैं--- "वस्त्र पर हमारी ममता नहीं है । यह केवल लोक मर्यादा एवं शीतादि निवारण के लिए है, अनाकुलता केलिए है, और कुछ के लिए नहीं।" धर्म और उपवास: भोजन नहीं करने का उद्देश्य क्या है ? उपवास आदि क्यों किए जाते हैं ? उनका उद्देश्य क्या है ? शान्ति और समाधि की प्राप्ति ही न! और, भोजन करने का उद्देश्य भी शान्ति और समाधि को बनाये रखना ही है। तब तो हमारा केन्द्र एक ही हुआ। और इस केन्द्र पर खड़े होकर ही हम सोच रहे हैं कि उपवास प्रादि तप के समान भोजन भी अनाकुलता का साधन होने से साधना है, धर्म है। जहाँ तक मेरा अध्ययन एवं अनुभव है, यह समग्र भारतीय-दर्शन का मान्य तथ्य है। संत कबीर ने भी कहा है-- "कबिरा छुपा कुकरी, करत भजन में भंग । या को टुकड़ा डारिके, भजन करो नीशंक ॥" भख एक कुतिया है, यह शोर करती है, तो शान्ति भंग होती है, ध्यान स्खलित हो जाता है, अतः इसे भोजन का टुकड़ा डाल दो और फिर शान्ति से अपनी साधना करते रहो । धर्म का बाह्य अतिवाद : भोजन के सम्बन्ध में जो सर्वसम्मत विचार है, काश! वही विचार यदि वस्त्र के सम्बन्ध में भी किया जाता, तो इस महत्त्वपूर्ण परम्परा के दो टुकड़े नहीं हुए होते। जिन साधक आत्माओं को वस्त्र के अभाव में भी शान्ति रह सकती हो, आकुलता नहीं जगती हो, तो उनके लिए वस्त्र की बाध्यता नहीं है। किन्तु, वस्त्र के अभाव में जिनकी शांति भंग होती हो, उन्हें समभावपूर्वक वस्त्र-धारण करने की अनुमति दी जाए, तो इसमें कौन-सा अधर्म हो जाता है ? भगवान महावीर के समय में सचेलक और अचेलक (सवस्त्र और अवस्त्र) दोनों परम्पराएँ थीं। तब न निर्वस्त्र होने का आग्रह था और न सवस्त्र होने का। न वस्त्र से मुक्ति अटकती थी और न अवस्त्र से। वस्त्र से मुक्ति तब अटकने लगी, जब हमारा धर्म बाहर में अटक गया, अन्दर में झाँकना बन्द कर दिया गया। वैष्णव परम्परा भी इसी प्रकार जब बाहर में अटकने लगी, तो उसका धर्म भी बाहर में अटक गया और वह एक बुद्धिवादी मनुष्य के लिए निरा उपहास बनकर रह गया। अतीत में तिलक को लेकर वैष्णव और शैव भक्त कितने झगड़ते रहे हैं, परस्पर कितने टकराते रहे हैं ? कोई सीधा तिलक लगाता है, तो कोई टेढ़ा, कोई त्रिशूल मार्का, तो कोई यू (U) मार्का और कोई सिर्फ गोल बिन्दु ही। और, तिलक को यहाँ तक तूल दिया गया कि तिलक लगाए बिना मुक्ति नहीं होती। तिलक लगा लिया, तो दुराचारी की आत्मा को भी वैकुण्ठ का रिजर्वेशन मिल गया! पन्ना समिक्खए धम्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003408
Book TitlePanna Sammikkhaye Dhammam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year1987
Total Pages454
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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