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वह है-आध्यात्मिक-साधना । साधना सबकी भिन्न-भिन्न होने पर भी उसका उद्देश्य और लक्ष्य प्रायः एक जैसा ही है। अध्यात्मवादी-दर्शन के अनुसार इस साधना को जीवन का आचार-पक्ष कहा जाता है। जब तक विचार को आचार का रूप नहीं दिया जाएगा, तब तक जीवन के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। प्रत्येक अध्यात्मवादी-दर्शन ने अपनेअपने सिद्धान्त के अनुसार अपने विचार को प्राचार का रूप देने का प्रयत्न किया है। भारत में एक भी अध्यात्मवादी-दर्शन ऐसा नहीं है, जिसके नाम पर कोई सम्प्रदाय स्थापित न हुआ हो। यह सम्प्रदाय क्या है ? प्रत्येक दर्शन का अपने विचार-पक्ष को आचार में साधित करने के लिए यह एक प्रयोग-भूमि है। सम्प्रदाय उन विचारों की अभिव्यक्ति है, जो उसके द्रष्टानों ने कभी साक्षात्कार किया था। यही कारण है कि भारतीय-दर्शन में विचार और प्राचार तथा धर्म और दर्शन साथ-साथ चलते हैं। भारतीय-दर्शनों की सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता यही है कि उनमें धर्म और दर्शन की मूल समस्याओं में कोई भेद नहीं किया गया है। भारत में धर्म शब्द का प्रयोग बड़े व्यापक अर्थ में किया गया है। वस्तुतः भारत में धर्म और दर्शन दोनों एक ही लक्ष्य की पूर्ति करते हैं। भारत के दर्शनों में धर्म केवल विश्वासमात्र ही नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक-विकास की विभिन्न अवस्थाओं और जीवन की ऊर्ध्व-यात्रा की विभिन्न परिस्थितियों के अनुरूप मानवी व्यवहार और प्राचार का एक क्रियात्मक सिद्धान्त है। यहाँ पर दर्शन के सिद्धान्तों का मूल्यांकन जीवन की कसौटी पर किया गया है और धार्मिक सिद्धान्तों को प्रज्ञा की तुला पर तोला गया है। भारत के अध्यात्मवादी-दर्शन की यह एक ऐसी विशेषता है, जो अतीतकाल के और वर्तमान काल के अन्य किसी देश के दर्शन में प्राप्त नहीं है। धर्म और दर्शन परस्पर सम्बद्ध हैं। उनमें कहीं पर भी विरोध और विषमता दृष्टिगोचर नहीं होती, सर्वत्र समन्वय और सामञ्जस्य ही भारतीय-धर्म और संस्कृति का एकमात्र प्राधार रहा है।
समन्वय दष्टि:
समन्वयवाद के आविष्कार करनेवाले श्रमण भगवान महावीर हैं। भगवान् महावीर के युग में जितने भी उनके समकालीन अन्य दार्शनिक थे, वे सब एकान्तवादी परम्परा की स्थापना कर रहे थे। उस युग का भारतीय-दर्शन दो भागों में विभाजित था-एकान्त नित्यवादी और एकान्त अनित्यवादी, एकान्त भेदवादी और एकान्त अभेदवादी, एकान्त सद्वादी और एकान्त' असद्वादी तथा एकान्त एकत्ववादी और एकान्त अनेकत्ववादी ।
पिने-अपने एकान्तवाद का पकड़ कर अपने पथ, सम्प्रदाय और परम्परा को स्थापित करने में संलग्न थे। सब सत्य का अनुसंधान कर रहे थे और सब सत्य की खोज कर रहे थे, किन्तु सबसे बड़ी भूल यह थी कि उन्होंने अपने एकांशी सत्य को ही सर्वांशी सत्य मान लिया था। भगवान् महावीर ने अनेकान्तवाद और स्याद्वाद के वैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार पर समग्र दर्शनों का विश्लेषण किया और कहा--अपनी-अपनी दृष्टि से सभी दर्शन सत्य है, परन्तु सत्य का जो रूप उन्होंने अधिगत किया है वही सब-कुछ नहीं है, उससे भिन्न भी सत्य की सत्ता शेष रह जाती है, जिसका निषेध करने के कारण वे एकान्तवादी बन गए है। उन्होंने अपने अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा अपने युग के उन समस्त प्रश्नों को सुलझाया, जो आत्मा और परलोक आदि के सम्बन्ध में किए जाते थे। उदाहरण के लिए, आत्मा को ही लीजिए.बौद्ध-दार्शनिक प्रात्मा को एकान्त क्षणिक एवं अनित्य मान रहे थे। वेदान्तवादी-दार्शनिक आत्मा को एकान्त नित्य और कूटस्थ ही मान रहे थे। भगवान् महावीर ने उन सबका समन्वय करते हुए कहा--पर्याय-दृष्टि से अनित्यवाद ठीक है और द्रव्य-दृष्टि से नित्यवाद भी ठीक है। आत्मा में परिवर्तन होता है----इस' सत्य' से इन्कार नहीं किया जा सकता, परन्तु यह भी सत्य है कि परिवर्तनों में रह कर भी और परिवर्तित होती हुई भी प्रात्मा कभी अपने अनादि मूल चित्-स्वरूप से सर्वथा नष्ट नहीं होती। इसी प्रकार उन्होंने कर्मवाद, परलोकवाद और जन्मान्तरवाद के सम्बन्ध में भी अपने अनेकान्तवादी
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