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बुद्धि-विलास देवदता वेस्यां घरि जाय, तप कीन्हौं तिन मन वच काय । देवसंघ' थाप्यौ तिन२ तनौं, सोभित देवप्रभा सम मनौं ॥२२५॥ गछ पुसतकगरण देसी ठांनि, साषा च्यारि करीऐ जांनि । देवदत्त पुंग फुनि नाग, तिनको है जग मैं सोभाग ॥२२६॥ जिहि जिहि थानक मुनि दिय जोग, तिह विसेष किय नाम सँजोग।। इम साषा गण गछ संघ सवै, थपे मुनी अर्हद वलि तवै ॥२२७॥ इन च्यारिनु को कियौ मिलाप, मेटन कौं जग की अघ ताप। च्यारिनु मैं दीक्ष्यादिक' कर्म, तिनमैं भेद नही को भर्म ॥२२॥ फुनि पड़कमणा प्राछत' जांन, ग्रंथ प्रचार सु और पुरांन । तिन के मधि विसेषि' को संत, भेद न जानहु सकल महंत ॥२२६॥ इनकी आमनाय मैं कोय, जो जिन विव प्रतिष्ट्यो होय। जे भविजन है या जग मांहि, ताहि मांनियौं संसय नांहि ॥२३०॥ औ संघ कीजो अमनाय, तामैं विव प्रतिष्ट्यो जाय। ताहि मांनिवो नहि कुल-रीति, वामैं न्यास तणी विपरीति ॥२३१॥ ऐही संघ जगत मैं सार, स्वै परमोक्ष दिषावनहार । इनमैं भेद कियौ जो चहै', नहि समकिती मिथ्याती वहै ॥२३२॥
अथ आचारिज प्रादि गृहस्थाचार'-यति-वर्नन चौपई : जे मुनि पालै पंचाचार, व वे ता मुषि मूलाचार ।
सोही च्यारि संघ मैं मांनि, प्राचारजि कहिऐ गुनखांनि ॥२३३॥ नय अनेक करि साख सकीर्ण, तिनके अरथ' मांडि परवीण । समरथ कर वामैं व्याष्यांन, पंचाचार मांहि रत जान ॥२३४॥ सोही सही उपाध्या होय, अवै साधु-गुरण सुरिण भवि-लोय । सकल परगृह' रहत जु होय, करै नही व्याख्यान जु कोय ॥२३५॥
२२५ : १ देवस्यंघ। २ तिह। २२७ : १ जिह जिह। २ अरहद २२८ : १दिष्यादिक । २२६ : १ प्राछित । २ वसेष। ३ जांनहं। २३२ : १ वहै। २३३ : १ गृहस्छाचार्य । २ ति only | २३४ : १ अर्थ। २३५ : १ परिगृह । २ रहित। ३ सोय ।
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