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बुद्धि-विलास
वाही जंबूदीप मभारि, दक्षिण' दिसि लीजिये विचारि । तामैं भरथक्षेत्र र ता मांहि मद्धि देस प्रति सुव वसाहि ॥ २०३ ॥ श्री महावीर जु सिवपुर गए, ता पोछे' जे मुनिवर भऐ । सौभद्र' लौं सकल छवीस, फुनि हुव भद्रवाहु
मुनि ईस ॥ २०४॥
दोहा :
सोरठा :
वन छवीस के नांम जो, देष्यौ चाहौ वरनौं जहां पटावली, तामैं लबियो'
भयभीति' ।
ते अनूप ॥ २०६ ॥
चौपाई : काल चतुरथ जु भयो वितीत, तव आयो पंचम भऐ अवंती विक्रम भूप, भद्रबाहु मुनि ते तौ स्वर्ग पहौचे' जाय, फुनि जो भईस सुनि मन लाय । वे प्रभु वर्धमान जिनराय, तिनको मत भविजन सुषदाय ॥२०७॥ संघ वहुत प्रगटे ता मद्धि, यह विचित्र गति काल प्रसिद्धि । निज इछा माफिक जग जवें, चलन लग्यो आपस मैं सबै ॥ २०८ ॥ पाप ताप करि मोहित होय, काहू की मांनत नहि कोय । तव जे मुनि हे महा प्रवीन, परमाथी सु' तिनकै मन विचार अपनों, अपने और जो इनको बंध न मरजाद, तौ न मिटै तम
दोहा :
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२०३ : १ दषिरण । २०४ : १ पीछे । २०५ : १ लषियाँ २०६ : १ भयभीत । २०७ : १ पहुंचे ।। २०६ : १ स्व । २१० : १ मनि । २११ : १ उत्तिम । २१२ : १ गछ । २१३
१ षांप ।
ऐक-मेक ता सवनि की, लषि कैं डरे महंत ।
तव उत्तम पुर षांनि कैं, निमत र विचारी संत ॥२११॥
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संघ गएछ' गरण सार, साषा ऐ च्यारौ सुविधि ।
करिकै परम विचार, प्रथम सथापे मुनिनु के ॥ २१२ ॥
ग्रांम नगर के नांम, खांप ' गोत श्रावगनि के । ठहराऐ लषि ठाम, सो अवलों यह प्रगट है ॥२१३॥
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२ भरतषेत्र । ३ वसांहि । २ यसोभद्र ।
कोय ।
लोय ॥२०५॥
२ ऊपनी ।
२ निमति ।
२ए । ३ हैं ।
श्रातम लीन ॥ २०६॥ पराऐ तनौं ।
तनो विषाद ॥ २१०॥
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