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________________ ३२ ] बुद्धि-विलास वाही जंबूदीप मभारि, दक्षिण' दिसि लीजिये विचारि । तामैं भरथक्षेत्र र ता मांहि मद्धि देस प्रति सुव वसाहि ॥ २०३ ॥ श्री महावीर जु सिवपुर गए, ता पोछे' जे मुनिवर भऐ । सौभद्र' लौं सकल छवीस, फुनि हुव भद्रवाहु मुनि ईस ॥ २०४॥ दोहा : सोरठा : वन छवीस के नांम जो, देष्यौ चाहौ वरनौं जहां पटावली, तामैं लबियो' भयभीति' । ते अनूप ॥ २०६ ॥ चौपाई : काल चतुरथ जु भयो वितीत, तव आयो पंचम भऐ अवंती विक्रम भूप, भद्रबाहु मुनि ते तौ स्वर्ग पहौचे' जाय, फुनि जो भईस सुनि मन लाय । वे प्रभु वर्धमान जिनराय, तिनको मत भविजन सुषदाय ॥२०७॥ संघ वहुत प्रगटे ता मद्धि, यह विचित्र गति काल प्रसिद्धि । निज इछा माफिक जग जवें, चलन लग्यो आपस मैं सबै ॥ २०८ ॥ पाप ताप करि मोहित होय, काहू की मांनत नहि कोय । तव जे मुनि हे महा प्रवीन, परमाथी सु' तिनकै मन विचार अपनों, अपने और जो इनको बंध न मरजाद, तौ न मिटै तम दोहा : Jain Education International २०३ : १ दषिरण । २०४ : १ पीछे । २०५ : १ लषियाँ २०६ : १ भयभीत । २०७ : १ पहुंचे ।। २०६ : १ स्व । २१० : १ मनि । २११ : १ उत्तिम । २१२ : १ गछ । २१३ १ षांप । ऐक-मेक ता सवनि की, लषि कैं डरे महंत । तव उत्तम पुर षांनि कैं, निमत र विचारी संत ॥२११॥ 9 संघ गएछ' गरण सार, साषा ऐ च्यारौ सुविधि । करिकै परम विचार, प्रथम सथापे मुनिनु के ॥ २१२ ॥ ग्रांम नगर के नांम, खांप ' गोत श्रावगनि के । ठहराऐ लषि ठाम, सो अवलों यह प्रगट है ॥२१३॥ 3 २ भरतषेत्र । ३ वसांहि । २ यसोभद्र । कोय । लोय ॥२०५॥ २ ऊपनी । २ निमति । २ए । ३ हैं । श्रातम लीन ॥ २०६॥ पराऐ तनौं । तनो विषाद ॥ २१०॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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