SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुद्धि-विलास तव वह जीव वचन हिय धरै, धर्म प्रतीत सकल विधि करें । गुर जे पिता सु तिन तै ग्यांन, पाय हृदय मैं धरं सुजांन ॥ १४२४ यह अवतार क्रिया कहो, गर्भाधान समान । मिथ्या तजि सति धर्म कौं, गहै सुही मतिवांन ॥ १४२५ ॥ फुनि गुरू के ढिगि गहत जो वरत मूल गुण प्राठ । सो वृत लाभ क्रिया दुतिय, सुभ गति को यह ठाठ ॥ १४२६ ॥ बहुरि होय उपवास जुत, जिन मंदिर मैं जाय । समोसररण दे श्रादि कौ, मंडल रुचिर रचाय ॥ १४२७ ॥ विधिवत पूज करविही, नमि के श्रीभगवंत । फुनि गुरु श्राग्या पाय निज, प्रभु सनमुष वैठंत ॥ १४२८ ॥ श्रावक परण तरणी, दे गुरु संघ सु साषि । फुनि करि मुद्रा पंच गुरु, परसत सिर गुर भाषि ॥ १४२६ ॥ मस्तगि मेल्है श्रासिषा देत मंत्र नौकार | दूरि करण कौं पाप सव, फुनि जब होत संवार ॥ १४३०॥ गुरु की श्राग्या पाय धरि, करत पारणों जाय । स्थान लाभ किरिया यहै, त्रतिय कही मुनिराय ॥ १४३१ ॥ निज गृह मिथ्या देव ह्र सुढिगि जाय कैं, अरिल : दोहा : सोरठा : १४३२ : १ सो अब । १४३६ : १ दृढ । Jain Education International मैं पूजे वहु काल प्रजां पराय कैं । कहै सु' तुम नीकसौ हमारे गेहतें, लई हौं पूजौंगो देव दोष विनि देहतें ॥१४३२ ॥ प्रतग्या ऐह, जैनिदेव - गुर-सासतर । नमिहौं गुणनि प्रछेह, चतुरथ यह गरण ग्रह क्रिया ॥१४३३॥ क्रिया वहुरि उपवास, इन पूर्वक सासत सुरौं । पूजाराध्य क्रिया सु, पंचम यह भाषी गुरनि ॥ १४३४ ॥ होत पुंन्य कौ वंध, सो काररण विधिवत सुखें । साथै करै सुछंद, पुंन्यवंध किरिया यहै ॥ १४३५॥ सुकै सास्त्र अनेक क्रिया मांभि श्रति द्रिढ रहे । गहैं प्रतग्या टेक, सो द्रढचर्या है क्रिया ॥१४३६ ॥ 9 [ १६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003404
Book TitleBuddhivilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmadhar Pathak
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy