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बुद्धि-विलास
[ १६३ ग्यांनी तपसी वृद्ध तरणी सेवा करौ,
वारह वृत तें सावधान रहि अघ हरो ॥१४०६॥ प्रजा धर्म मैं राषि जु षित्री धर्म है,
सो सव विधि पालियो यहै जो पर्म है। यौँ कहि मनवांछित दे दांन सु चार है,
___ स्वरजुत वन मैं जाय तर्ज सव परिग्रहै ॥१४०७॥ सिद्धन कौं नमि पंच-मुष्टि करि लोचकौं,
परिनिःक्रांत सुक्रिया जांनि तजि सोचौं । द्विविधि धारि तप जिन कल्पी' जे होय है,
क्षिपक श्रेरिण चढि सुकल ध्यान कौं जो यहै ॥१४०८॥ ध्यान अग्नि से अटवी कर्मा रूप जो,
. भस्म करै अंतम लय थकी स्वरूप जो। केवल ग्यांन प्रगट ह जग सव पूजही,
संम्मह जोग क्रिया यह गुर कौं सूझही ॥१४०६॥ केवल ग्यांन समै इंद्रादिक प्राय के,
समोसरण वसु प्रातहार्य सुर चाय कैं। वारह सभा सँयुक्त धर्म उपदेस दे,
__ सो प्रात्यक्रिया गुर कही हमेस ते ॥१४१०॥ धर्म-चक्र प्राग ह्व करत विहार कौं,
निमति धर्म उपदेस र्दैन सुभकार कौं। सो विहार किरिया है वहुरचौं अव सुनौं,
तजि विहार करि दंड कपाट प्रतर मनौं ॥१४११॥ रोक काय वचन के जोग सु जानियें,
जोग त्याग किरिया याकौं पहचानियें। मनोजोग कौं रोकि प्रकृति' कर्मनु तरणी,
कहैं पिच्यासी ए अघाति याको सुरणी ॥१४१२॥ तिनकौं क्षय करि क्रिया रहित सव होय के,
पद प्रापति निरवाण होत सुष मोय के।
१४०८ : १. कलपी। २षिपक । १४१२ : १. प्रक्रति ।
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