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४०] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय है-कोई २-३ मीलके फासले पर है।' कहने लगे 'हमको आपने जगाया क्यों नहीं ? हम भी आपकी जन्मभूमिके, दूरसे ही सही, दर्शन तो कर लेते।' गाडीने सीटी दे दी और वह चल पडी। उनकी इच्छा तो हुई कि मुझसे अपने बचपनकी कुछ बातें पूछे, पर मेरा मन वैसान देख कर वे शान्त रहे और अपने मुंह पर कपडा डाल कर बनावटी नींदसे कुछ फिर सो गये । आध घंटे बाद फिर बैठ खडे हुए। मैं भी हाथ मुंह धो कर स्वस्थ हो गया था और वे भी बाथरूममें जा कर तैयार हुए। इतनेमें हम अजमेर पहुंच गये।
अजमेरसे गाड़ी बदल कर हम अहमदाबाद जानेवाली गाडीमें बैठे और दोपहरको सजनरोड स्टेशन (सीरोही स्टेट) पर उतर गये। वहांसे बामणवाडा तीर्थस्थान पहुंचे, जहां पर श्रीशान्तिविजयजी महाराज विराजमान थे और सिंधीजीकी पूजनीया माताजी भी उस समय वहीं उन महाराजकी सेवामें थीं।
श्रीशान्तिविजयजी महाराजकी सेवामें यथासमय हम दोनों मुनिमहाराजकी सेवामें उपस्थित हुए। महाराजने मेरा
'उसी उदयपुरकी तरह, बड़ा आदर किया और अपने हाथसे आसन बिछा कर मुझे पासमें बिठाया। सुखसाता विषयक बडे प्रेमसे कुशल प्रश्न पूछा और बोले'बहुत अच्छा हुआ भाप आ गये । मैं उदयपुर जाने आनेवालोंसे हमेशा आपके कुशल समाचार पूछता रहता था और आपने उदयपुरमें जो शासनकी सेवा की है उसकी मैं रोज अनुमोदना करता था' इत्यादि। फिर सिंघीजीने उदयपुरका सारा किस्सा संक्षेपमें कह सुनाया और मेरे विषयमें कहा कि 'वहां जो कुछ हम काम कर सके और अपने पक्षको अच्छी तरह उपस्थित कर सके उसका सारा श्रेय मुनिजीको है। अगर ये न होते तो हमारा केस बिल्कुल फैल होता' - इत्यादि । सुन कर शांतिविजयजी महाराज और भी अधिक प्रसन्न हुए और पासमें जो भक्त लोग बैठे थे उनके सामने मेरी अत्यधिक प्रशंसा करने लगे । यद्यपि उनकी प्रशंसाकी कोई सीमा न थी, पर उसे सुन कर मैं तो मन-ही-मन उद्विग्न हो रहा था। क्यों कि मैं जानता था कि वे जो प्रशंसा कर रहे हैं वह सिर्फ उनके सौजन्य और सरल स्वभावकी सूचक है। उनकी प्रशंसाके पीछे मेरी कार्यशक्तिका कोई वास्तविक ज्ञान तो था नहीं और अज्ञानमूलक प्रशंसासे प्रफुल्लित होनेवाला मैं वैसा बुद्ध जीव हूं नहीं। उनकी देखा-देखी और उन्हींके शब्दोंको ईश्वरीय वाक्य माननेवाले कई बनिये भी उसी तरह कहने लगे। तब तो मुझे कुछ क्रोधसा भी आने लगा। परन्तु क्या किया जाय- योगीराजके सामने बैठे थे। उनकी आज्ञाके विना उठ कर चलना भी असंभव था और फिर वे बेचारे भोलेभावसे और बडे प्रेमसे ऐसा कर रहे थे, इसलिये उसकी अवज्ञा करना भी अविनय था। सो मैं नीचा मुँह करके विना कुछ बोले चाले आधे घंटे तक वह सब सुनता रहा । आखिरमें, जब वहां कुछ ५-१० और भक्तजन गुरुदेवकी जय बुलाते हुए पहुंच गये और कोओंकी तरह चारों तरफ काँ काँ शुरू हुई, तब मैं धीरेसे उनकी आज्ञा ले कर और फिर पीछेसे सेवामें उपस्थित होनेकी इच्छा प्रदर्शित कर, उठ खडा हुआ । महाराजने तो
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