SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्ष] श्री बहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्य सरण [१७ मकानकी जरूरत होगी जो उसीके नजदीक होना चाहिए। शायद वैसा कोई मकान वे नहीं दे सकेंमें । वह अपने ही को तैयार (कम खर्चेमें) कर लेना होगा। आप इन बातोंकी और इसके सिवाय और और जो जरूरत हो उन बातोंकी निगाह करके, एक दफह इधर आ जावें तो रूबरूमें सब बातें हो जानेसे जल्दी सब तय हो जाय । पत्रमें विलंब हो जाता है। 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के छपाईके बाबतमें भी कुछ बातें आपसे करनी हैं।" सिंधीजीका यह पत्र मिलने पर यथावकाश मैं कलकत्ते गया और जिन जिन बातोंका विचार करना आवश्यक था किया गया । 'जैन छात्रालय के लिये सामान तैयार करने की यादी की गई । भोजनालयके लिये कोई योग्य स्थान हमको वहां मिल नहीं रहा था इसलिये एक नया ही मकान अपने खर्चेसे बनानेका विचार तय हुआ और वह मकान कैसा और कितना लंबा-चौडा आदि होना चाहिये इसका रफ प्लान भी हम दोनोंने बैठ कर अंकित कर लिया। सिंघीजीको मकान आदि बनानेका बडा शौक था और प्लान वगैरह अपने आप सोच कर अंकित करते-करवाते थे। मुझे भी इस विषयमें कुछ रस रहा है और अनेकों प्लान मैंने यों ही अपने शौकको पूरा करनेके लिये बनाये-बिगाडे हैं । शान्ति निकेतनमें उस समय तो मकान प्रायः कच्चे ही थे। मिट्टीकी दिवारें और ऊपर घासके छप्पर यही वहांके मकानोंकी रचना थी। हमने भी उसी ढंगका प्लान बनाया पर दरवाजे और खिडकियां आदिके लिये कुछ टिकाउ लकडीका उपयोग करना तय किया और वह सब कलकत्ते ही से बनवा कर भेजा जाना सोचा गया । इस एक छोटेसे झोंपडेका प्लान बनानेके लिये हम दोनोंने पूरा एक दिन खर्च किया। मैं तो खैर निकम्मा ही था इसलिये मुझे तो उसमें उतना समय देनेमें कोई विशेष नहीं लगता था। पर सिंधीजी तो बडे व्यवसायी थे, उनका इस प्रकार ऐसी मामूली लगनेवाली बातमें इस तरह समय खर्च करना, दूसरोंकी दृष्टिमें कैसासा लग सकता है । पर उनकी यही तो विशेषता थी। चाहे कोई बात छोटी हो या बडी हो, परन्तु उस पर पूरी सावधानीके साथ विचार करनेकी उनकी प्रकृति थी। जो काम करना उसको अच्छी तरह करना यह उनका सिद्धान्त था। पैसा खर्च करना दिल खोल कर करना, पर उसका कहीं दुरुपयोग न हो इसकी पहले यथेष्ट जांच कर लेनेका उनका पूरा लक्ष्य रहता था। विद्यार्थियों के उपयोगके लिये डेस्क, बुकसेल्फ, सोनेके पट्टे आदि सब चीजोका माल और डिझाइन आदि अपने हाथसे बना कर फिर कारीगरको बुलाया गया और उसको उन चीजोंके बनानेका ऑर्डर दिया गया। इस तरह ३-४ दिन उनके साथ रह कर मैं पुनः शान्तिनिकेतन चला गया और वहां अपना कार्य करने लगा। थोडे ही दिनमें कलकत्तेसे सामान तैयार हो कर शान्तिनिकेतन पहुंचने लगा। विद्यार्थी भी कुछ वहां पहुंच गये थे और उनको स्कूल बगैरहमें भर्ती करानेका कार्य आरंभ हो गया था। खान-पान आदिकी चीजोंकी भी ज्यों ज्यों जरूरत उपस्थित होती जाती थी त्यों त्यों वे कलकत्ते से ही पहुंचाई जाती थीं। शान्तिनिकेतनमें इन चीजोंके मिलनेकी कोई अच्छी सुविधा नहीं थी। सिंधीजी इस विषयमें बडे निपुण थे और स्वयं बड़ी दिलचस्पीसे सब बातोंका खयाल कर कर उनको वहां ३.३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy