SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [तृतीय जीसे लिखा, तो वे स्वयं एक दिन वहां आये और जगह वगैरह सब देख कर उसके बारेमें गुरुदेवसे उसकी ऑफिसियल स्वीकृति आदि मांग लेने का निर्णय किया और छात्रालयके सामान आदिकी तैयारीकी बात वे सोचने लगे। सिंघी जैन ग्रन्थमालाका प्रारंभ उस ग्रीष्मकालके अवकाशमें मैं अहमदाबाद आया और पण्डितजी वगैरहको साथ ले कर पाटणके भण्डारोंमेंसे साहित्यिक सामग्री इकट्ठी करने तथा ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां आदि करने कराने के निमित्त दो-एक महिने वहां ठहरा। मेरे परमपूज्य गुरुस्थानीय प्रवर्तकजी श्रीकान्तिविजयजी महाराज तथा उनके साहित्योद्धारकार्य निरत सुचतुर शिष्य प्रवर मुनिवर श्रीचतुरविजयजी महाराजकी मेरे प्रति अप्रतिम वत्सलता एवं ममताके कारण, मेरे अपने कार्यमें उनसे संपूर्ण सहायता मिलती रही और उसके कारण भण्डारोंका निरीक्षण करने में मुझे यथेष्ट सफलता प्राप्त हुई । पाटणके भण्डारोंकी सुव्यवस्था और सुरक्षा आदि करनेमें जितना परिश्रम और जितना उद्यम मुनिवर्य श्रीचतुरविजयजीने किया, वैसा आज तक किसी साधुने, किसी ज्ञानभण्डारके निमित्त किया हो ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है। वे बडे कर्तव्यनिष्ठ और साहित्य - संरक्षक साधुपुरुष थे। मैंने पहले पहल अपने ग्रन्थ संपादनका "ॐनमः सिद्धम्"का पाठ उन्हींसे पढा था। पाटणमें संघवीके पाडेमें जो ताडपत्रका मुख्य भण्डार है उसके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियां आदि लेनेमें स्ययं इन शिष्यवत्सल मुनिवरने मुझे बहुत सहायता की । सैंकडो ही प्रशस्तियां उन्होंने अपने हाथसे लिख लिख कर मुझे दी। उस उग्र ग्रीष्मकालके भर मध्याह्नमें वे सागरगच्छके उपाश्रयसे चल कर संघवीके पाडेमें पहुंचते और भंडारके पिटारोंमें रखे हुए सैंकडों ही पुस्तकोंके बस्तोंको अपने हाथसे उठा उठा कर इधर उधर रखते और अभीष्ट पोथीको खोज कर नीकालते । भण्डारकी पोथियोंको रखनेके लिये कुछ आलमारियां नहीं थी सो उनके बनवाने की इच्छा श्रीचतुरविजयजी महाराज कर रहे थे। मैंने यह सब हाल सिंधीजीको लिख भेजा और सूचित किया कि यदि उनकी इच्छा हो तो इस भण्डारके रक्षणकार्यमें कुछ मदद देने योग्य है। इसके उत्तरमें उन्होंने ५००रू० के नोट भेजे जो मैंने श्रीचतुरविजयजी महाराजको, ज्ञानोद्धार कार्यमें समर्पण कर दिये। यहींसे 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के संपादनका कार्यारंभ हुआ। मैंने बंबई जा कर निर्णयसागर प्रेसके साथ छपाई वगैरहका प्रबन्ध किया और सबसे पहला ग्रन्थ 'प्रबन्धचिन्तामणि' छपनेको दिया । जैन छात्रालयका कार्यारंभ जुलाई के प्रारंभमें मैं फिर शान्तिनिकेतन पहुंचा। वहां पहुंचते ही 'सिंघी जैन छात्रालय' की व्यवस्थाका काम शुरू किया और उस विषयमें सिंधीजीको विस्तृत पत्र लिखा । उत्तरमें सिंघीजीने ता. ७. ७.३१ को पत्र लिखा ... आपका पत्र ता. ५-६ जुलाईका अभी मिला। आप शान्तिनिकेतन पहुंच गये मालूम हुआ। हम तो उम्मीद कर रहे थे कि आप इधरसे होते हुए जायंगें। बोर्डिंगके लिये जो दोनों मकान आपने पसंद किये थे वे हमने कविवर टागोरजीसे पत्र लिख कर मांग लिये हैं और उन्होंने हमारी मांगको स्वीकार कर लिया है। विद्यर्थी और सुपरिन्टेन्डेंटके रहनेकी जगह तो उसीमें हो जायगी। रसोई और भोजन करनेके लिये एक अलग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy