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१४] भारतीय विद्या
अनुपूर्ति [तृतीय नासिक जेलके स्मरण बडे आल्हादक और जीवनतोषक हैं पर उनका विस्तृत वर्णन यहां शक्य नहीं । प्रस्तुतमें जितना प्रासंगिक है उसका कुछ आलेखन मैंने 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला'के प्रथम ग्रन्थ- 'प्रबन्धचिन्तामणि'की अपनी प्रस्तावनामें किया है जो सन् १९३३ में प्रकाशित हुई थी। यहां पर उसीको उद्धृत करना अधिक उपयुक्त मालूम देगा। मैंने उसमें लिखा है कि
"सचमुच ही नासिकके सेंट्रल जेलखाने में जो चित्तकी शान्ति और समाधि अनुभूत की वह जीवनमें अपूर्व और अलभ्य वस्तु थी। वह जेलखाना, हमारे लिये तो एक परम शान्त और शुचि विद्या-विहार बन गया था। उसकी स्मृति जीवनमें सबसे बडी सम्पत्ति मालूम देती है। स्वनामधन्य (अब स्वर्गस्थ) सेठ जमनालालजी बजाज, कर्मवीर श्रीनरीमान, देशप्रेमी सेठ श्रीरणछोडभाई, साहित्यिक धुरीण श्रीकन्हैयालाल मुंशी आदि जैसे परम सजनोंका घनिष्ठ संबन्ध रहनेसे और सबके साथ कुछ-न-कुछ विद्या-विषयक चर्चा ही सदैव चलती रहनेसे, हमारे मनमें वे ही पुराने साहित्यिक संकल्प, वहां फिर सजीव होने लगे। सहवासी मित्रगण भी हमारी रुचि और शक्तिका परिचय प्राप्त कर, हमको उसी संकल्पित कार्यमें विशेष भावसे लगे रहनेकी सलाह देने लगे। मित्रवर श्रीमुंशीजी, जो गुजराती अस्मिताके सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि हैं और जो गुजरातके पुरातन गौरवको आबाल-गोपाल तक हृदयङ्गम करा देनेकी महती कलाविभूतिसे भूषित हैं, उनका तो दृढ आग्रह ही हुआ कि और सब तरंग छोड कर वही कार्य करने ही से हम अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हैं।। अन्यान्य घनिष्ठ मित्रोंका भी यही उपदेश हमें वहां बैठे बैठे वारंवार मिलने लगा और जेलखानेसे मुक्त होते ही हमें वही अपने पुराने बहीखाते टटोलनेकी आज्ञा मिलने लगी।
संवत् १९८६ के विजयादशमीके दिन, मित्रवर श्रीमुंशीजीके साथ ही हमें जेलसे मुक्ति मिली । हम बंबई हो कर अहमदाबाद पहुंचे । यद्यपि जेलखानेके उक्त वातावरणने मनको इस कार्यकी तरफ बहुत कुछ उत्तेजित कर दिया था, तो भी देशकी परिस्थितिका चालू क्षोभ, रह रह कर मनको अस्थिर बनाए रखता था। आखिरमें श्रीसिंघीजीका, शान्तिनिकेतन आ कर, जैन साहित्यके अध्ययन - अध्यापनकी (वह जो पहले सोची और निश्चित की गईथी) व्यवस्था हाथमें लेनेका आग्रहपूर्ण निमंत्रण मिलनेसे, और हमारे सदैवके सहचारी परमबन्धु पण्डित प्रवर श्रीसुखलालजीकी भी तद्विषयक वैसी ही बलवती इच्छा होनेसे (सन् १९३० के डीसेंबर मासके मध्यमें) अपने साथके कई विद्यार्थी एवं सहवासी गणके साथ हम शान्तिनिकेतन आ पहुंचे। यहां पर विश्वभारतीके ज्ञानमय वातावरणने हमारे मनको एकदम उसी ज्ञानोपास
+ शायद भविष्यके ही किसी संकेतने मुंशीजीसे यह मुझे कहलवाया था। नहीं तो जिसकी कोई कल्पना भी न की जाय ऐसा योग उसके ८-९ वर्ष बाद कैसे उपस्थित हो गया तथा कैसे हम दोनों एक जगह मिल कर इस 'भारतीय विद्या भवन' के हाथ पांव बन गये एवं कैसे इस भवनकी गति-स्थितिके एक विधायकके स्थानमें बिठा कर, इन्होंने अपने उस जेलखानेवाले भविष्य कथनका पालन करानेके लिये मुझे अकल्पित रूपसे बाध्य बना दिया।
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