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________________ ४] भारतीय विद्या अनुपूर्ति [तृतीय बहुत ही आग्रहपूर्वक कहा कि-'साहित्योपासनासे बढ़ कर कोई पुण्यकार्य और देशहितकार्य नहीं है; और फिर, जो कार्य आप कर रहे हैं वह तो लाखोंमेंसे किसी एक ही से शक्य है। इसलिये आपको तो इस महत् कार्यको छोड कर अन्य किसी कार्यातरमें संलग्न नहीं होना चाहिये' इत्यादि। _ मैं यों जब पटनेमें था तब एक दिन कलकत्तेसे सिंघीजीका टेलीग्राम मिला जिसमें उन्होंने कमसेकम एक दिनके लिये भी कलकत्ता आनेका मुझसे अनुरोध किया। मेरी भी इच्छा उनसे मिलनेकी थी ही-सो मैंने कलकत्ते जानेका निश्चय किया। शान्तिनिकेतनका प्रथम दर्शन पटनासे साहिबगंज लूप लाईनसे हो कर कलकत्ते जाते समय रास्तेमें शान्तिनिकेतन 'आता था। विश्वभारतीके नामसे संसारके संस्कृतिप्रिय जनपदों में सुप्रसिद्ध और भारतके सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक कवीन्द्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुरके वासस्थानसे पुनीत इस तीर्थस्थानके दर्शनोंकी अभिलाषा तो बहुत वर्षोंसे हो रही थी, पर उसे सफल करनेका अभी तक कोई प्रसंग नहीं मिला था। सो कलकत्ते जाते समय इस वार इस स्थानकी यात्रा भी करनेका सुअवसर मिल गया। मैं एक दिनके लिये बोलपुर स्टेशन पर उतर कर शान्ति निकेतन हो आया। मेरे चिरपरिचित सहृदय सन्मित्र आचार्य श्रीक्षितिमोहन सेन वहीं पर थे। गुरुदेव कहीं बहार गये हुए थे सो उनके दर्शनका सौभाग्य तो नहीं प्राप्त हुआ, पर आश्रमका बाह्य और कुछ आन्तरिक अवलोकन कर लिया। गुरुदेवकी गीतांजलिके काव्योंका मनन और पठन तो जीवन में बहुत वर्षोंसे हो रहा था पर जिस पुण्यभूमिमें बैठ कर गुरुदेवने वाग्देवताकी वैसी लोकोत्तर विभूति प्राप्त की, उस भूतिमती भूमिका चिराकांक्षित दर्शन जीवनमें प्रथम वार ही कर उस दिनको भपने आयुष्यका एक सबसे अधिक सुखद और सुधन्य माना । शान्तिनिकेतनके प्रशान्त, प्रस्फुटित और प्रमुदित तपोवनको देख कर मेरा हृदय बहुत प्रहर्षित हुआ । वहांके उस अनवय, अनाडंबर और अनाकुल वातावरणकी अनुभूति कर अंतरात्मा मानन्दसे उच्छसित हुआ। मनमें अकल्पित रीतिसे भाव उठा कि यदि कभी अवसर मिल जाय तो कमसेकम ४-६ महिने तो जरूर इस तपोवनमें आ कर वसना चाहिये और गुरुदेवकी ज्ञानगरिमापरिपूर्ण अप्रतिम प्रतिभाकी प्रत्यक्ष उपासना कर, जीवनसमृद्धि में एक मूल्यवान् स्मृतिरत्नकी वृद्धि करनी चाहिये। दूसरे दिन मैं वहांसे कलकत्ते गया। सिंघीजीने तो तारमें लिखा था कि कलकत्ते भानेकी और गाडीकी सूचना तारसे दें; लेकिन मैं तो यों ही घोडागाडी कर उनका मकान खोजता हुआ अनपेक्षित भावसे उनके वहां चला गया। नीचे दरवान खडा था उसने नाम-ठाम पूछा और ऊपर जा कर बाबूजीको खबर दी तो वे स्वयं ऊपरसे उतर कर नीचे आये और मुझे ऊपर सीधे अपने बैठनेके कमरेमें ले गये। बोले 'मैं तो ३ दिनसे टेलीग्रामकी प्रतिक्षामें था- आप तो यों ही विना खबर किये चले आये। खबर मिलती तो स्टेशन पर मोटर चली आती' - इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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