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अंक १]
उमास्वातिका तत्त्वार्थ सूत्र और उनका सम्प्रदाय
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आराधना में 'सिवज्ज' या 'शिवार्य' किया गया है । जिस तरह शिवार्यके गुरुओं में जिननन्दि और मित्रनन्दि ये दो नन्द्यन्त नाम है, उसी तरह उमाखातिके एक गुरु मी घोषनन्दि हैं । वाचना-गुरु 'मूल' का भी शायद पूरा नाम 'मूलनन्दि' हो । भाष्य में यापनीयत्व
स्थल ऐसे हैं जो उसके यापनीय होनेकी स्पष्ट
तत्त्वार्थ-भाष्यमें कुछ सूचना देते हैं -
१ आठवें अध्यायका अन्तिम सूत्र है - 'सद्वेद्यसम्यक्त्वहास्य रतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम्' । इसमें पुरुषवेद, हास्य, रति और सम्यक्त्वमोहनीय इन चार प्रकृतियों को पुण्यरूप बतलाया है । परन्तु श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें इन्हें पुण्यप्रकृति नहीं माना है । इसलिए श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेन गणिको इस सूत्र की टीका करते हुए लिखना पड़ा है कि “कर्मप्रकृति ग्रन्थका अनुसरण करनेवाले तो ४२ प्रकृतियों को ही पुण्यरूप मानते हैं । उनमें सम्यक्त्व, हास्य, रति, पुरुषवेद नहीं हैं । सम्प्रदायका विच्छेद हो जानेसे मैं नहीं जानता कि इसमें भाष्यकारका क्या अभिप्राय है और कर्मप्रकृतिग्रन्थप्रणेताओं का क्या । चौदहपूर्वधारी ही इसकी ठीक ठीक व्याख्या कर सकते हैं ।"
वास्तवमें उक्त चार प्रकृतियों को पुण्यरूप यापनीय सम्प्रदाय ही मानता है और यह न जाननेके कारण ही सिद्धसेन गणि उलझन में पड़कर उक्त टीका लिखनेको वाध्य हुए हैं ।
अपराजितसूरि निश्चयसे यापनीय सम्प्रदाय के थे । उन्होंने भी अपनी विजयोदय टीकामें उक्त चार प्रकृतियोंको पुण्यरूप माना है । यथा - सद्वेद्यं
१ - “कर्म प्रकृतिग्रन्थानुसारिणस्तु द्वाचत्वारिंशत्प्रकृतीः पुण्याः कथयन्ति ।... आसां चमध्ये सम्यक्त्व हास्य रति पुरुषवेदा न सन्त्येवेति । कोऽभिप्रायो भाष्यकृतः को वा कर्मप्रकृतिग्रन्थप्रणयिनामिति सम्प्रदायविच्छेदान्मया तावन्न व्यज्ञायीति । चतुर्दशपूर्व धरादयस्तु संविदते यथावदिति निर्दोषं व्याख्यातम् ।”
२ - देखो, 'जैनसाहित्य और इतिहास' पृ० ४५-५४
३ – विजयोदय के कर्ता तत्त्वार्थसूत्र से खूब परिचित थे । उन्होंने इस टीका में तत्त्वार्थके बीसों सूत्र उद्धृत किये हैं और उनमें कुछ सूत्र भाष्यानुसारी हैं। जैसे पृ० १५२१ पर 'उत्तमसंहननस्य' आदि सूत्र | विजयोदया टीका सर्वार्थसिद्धि के बादकी मालूम होती है । क्योंकि उसमें एक जगह स० सि० के विचारोंका खंडन है - ( आगे नोट चालू है )
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