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________________ स्व० बाबू श्रीबहादुर सिंहजी सिंघीके साथ के मेरे पुण्य स्मरण * 'भारतीय विद्या' का प्रस्तुत ३ रा भाग, जिसमें हिन्दी और गुजराती भाषाके छोटे-बडे अनेक मौलिक और विचारपूर्ण निबन्धोंका एकत्र संग्रह किया गया है, योगानुयोगसे स्वर्गवासी श्रीमान् बाबू बहादुर सिंहजी सिंघीकी प्रथम वार्षिक मरणतिथिके अवसर पर प्रकट हो रहा है, इसलिये हमने इसको 'श्रीबहादुर सिंहजी सिंधी स्मृति ग्रन्थांक' के रूपमें प्रकाशित करना निश्चित किया है । सिंघीजीकी पहली श्राद्धतिथि विगत जुलाई की (सन् १९४४ के) ७ वीं तारीखको 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के संस्थापक, 'भारतीय विद्या भवन' के एक परम हितैषी एवं स्थापक सदस्य और मेरे अनन्य आत्मीय सहृदय सुहृदर श्रीमान् बाबू बहादुर सिंहजी सिंघीका, ५९ वर्षकी वयमें, कलकत्तामें, उनके अपने 'सिंघीपार्क' नामक निवासस्थानमें, दुःखद अवसान हो गया। सिंघीजीके स्वर्गवाससे मुझे अपने व्यक्तिगत संबन्धकी दृष्टिसे जो उद्वेग और अवसाद हुआ है वह कभी नहीं मिटनेवाला और अप्रतिकार्य । प्रायः पिछले पंदरह ada जो कुछ भी यत्किंचित् साहित्योपना मैं कर सका हूं और अब भी कर रहा हूं, वह सर्वथा उन्हींके उत्साह, आश्रय, आदर और औदार्यका फल है। सिंघीजीके साथ मेरा वह सौहार्द सम्बन्ध न बन्धता और मैं शान्तिनिकेतन में जा कर 'सिंधी जैन ज्ञानपीठ' का अधिष्ठाता न बनता, तो शायद मेरा कार्यक्षेत्र आज और कोई दूसरा ही होता । इसलिये इस प्रसंग पर, सिंघीजीके स्वर्गमनकी इस पहली श्राद्धतिथिके उपलइयमें, मैं अपने पिछले १५ वर्षोंके वे कुछ पुण्य स्मरण यहां पर शब्दांकित करना चाहता हूं जो मैंने समय समय पर प्राप्त होनेवाले उनके साथके सहवासमें संगृहीत किये हैं। यों तो ये स्मरण बहुत विस्तृत हैं । उन सबको यदि व्यवस्थित रूपसे लिखना चाहूं तो एक बडीसी पुस्तक ही हो जाय - और यदि कभी मौका मिला तो उन सबको लिखनेकी मेरी आकांक्षा भी है- पर प्रस्तुतमें मैं कुछ उन्हीं स्मरणोंको यहां पर आलेखित करना चाहता हूं जो विशेषकर साहित्यविषयक कार्यके साथ संबन्ध रखते हैं। किस तरह उन्होंने मेरी साहित्यिक प्रवृत्तिको अनन्य आश्रय दिया और किस तरह इस प्रवृत्तिके निमित्त अत्यन्त उत्सुकता के साथ उदार अर्थव्यय किया - इसीको लक्ष्य कर ये स्मरण लिखे जा रहे हैं। इन स्मरणोंके पठनसे पाठकों को बाबू बहादुर - सिंहजीके उदार व्यक्तित्व और उदात्त संस्कारप्रेमका परिचय प्राप्त होगा । सिंघीजीके साथ मेरा जो स्नेहसम्बन्ध और कार्यव्यवहार चालू हुआ उसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपले बहुत कुछ निमित्तभूत, मेरे जीवनके चिर सहकारी एवं सहचारी तथा जो मेरे और सिंघीजीके समान सखा और श्रद्धेय व्यक्ति है, पं० श्रीसुखलालजी है। सिंघजी के साथ पण्डितजीका परिचय बहुत वर्षोंसे था । कलकत्ता या अन्य किसी ३.१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003403
Book TitleBhartiya Vidya Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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