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१०] भारतीय विद्या
[वर्ष ३ धीरे धीरे सभी सम्प्रदायोंने अपने दर्शनके अनुकूल आन्वीक्षिकी की रचना की । मूल आन्वीक्षिकी विद्या वैशेषिक दर्शनके साथ घुल मिल गई पर उसके आधारसे कभी बौद्ध-परम्पराने तो कभी मीमांसकोंने, कभी सांख्यने तो कभी जैनोंने, कभी अद्वैत वेदान्तने तो कभी अन्य वेदान्त परम्पराओंने अपनी स्वतन्त्र आन्वीक्षिकी की रचना शुरु कर दी । इस तरह इस देशमें प्रत्येक प्रधान दर्शनके साथ एक या दूसरे रूप में तर्कविद्याका सम्बन्ध अनिवार्य हो गया ।
जब प्राचीन आन्वीक्षिकीका विशेष बल देखा तब बौद्धोंने संभवतः सर्व प्रथम अलग स्वानुकूल आन्वीक्षिकी का खाका तैयार करना शुरु किया । संभवतः फिर मीमांसक ऐसा करने लगे। जैन सम्प्रदाय अपनी मूल प्रकृतिके अनुसार अधिकतर संयम, त्याग, तपस्या आदि पर विशेष भार देता आ रहा था: पर आसपासके वातावरणने उसे भी तर्कविद्याकी और झुकाया । जहाँ तक हम जान पाये हैं, उससे मालूम पड़ता है कि विक्रमकी ५ वीं शताब्दी तक जैन दर्शनका खास झुकाव स्वतन्त्र तर्क विद्याकी और न था। उसमें जैसे जैसे संस्कृत भाषाका अध्ययन प्रबल होता गया वैसे वैसे तर्क विद्याका आकर्षण भी बढ़ता गया । पांचवीं शताब्दीके पहलेके जैन वाङ्मय और इसके बादके जैन वाङ्मयमें हम स्पष्ट भेद देखते हैं। अब देखना यह है कि जैन वाड्मयके इस परिवर्तनका आदि सूत्रधार कौन है ? और उसका स्थान भारतीय विद्वानोंमें कैसा है ?
आदि जैन तार्किक जहाँ तक मैं जानता हूँ, जैन परम्परामें तर्क विद्याका और तर्कप्रधान संस्कृत वाङ्मयका आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर । मैंने दिवाकरके जीवन और कार्योंके सम्बन्ध में 'अन्यत्र विस्तृत ऊहापोह किया है; यहाँ तो यथासंभव संक्षेपमें उनके व्यक्तित्वका सोदाहरण परिचय कराना है।
सिद्धसेनका सम्बन्ध उनके जीवन कथानकोंके अनुसार उज्जैनी और उसके अधिप विक्रमके साथ अवश्य रहा है, पर वह विक्रम कौन सा यह एक विचारणीय प्रश्न है । अभी तक के निश्चित प्रमाणों से जो सिद्धसेनका . १ देखिए गुजरात विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित सन्मतितर्कका गुजराती भाषान्तर, भाग ६, तथा उसीका इंग्लिश भाषान्तर, श्वेताम्बर जैन कोन्फ्रन्स, पायधुनी बोम्बे, द्वारा प्रकाशित।
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