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खर्गस्थ सिंघीजीके कुछ संस्मरण [११७ साम्प्रदायिकताके बन्धनसे मुक्त हो कर काम करती थी। हालां कि वे देखनेमें व्यवहारतः सामान्य रूपसे साम्प्रदायिक जैसे दीखते थे । मैं भी पन्थगत संकीर्ण परिस्थितिमें जन्मा और बड़ा भी हुआ, पर एक या दूसरे कारणसे अभ्यास
और चिंतनकी वृद्धिके साथ साथ, मेरे मनमें असाम्प्रदायिकताका भाव ही प्रबल होता गया। इस सत्यगवेषक ऐतिहासिक दृष्टिने हम लोगोंके पारस्परिक सम्बन्धको विशद बनानेमें बड़ा काम किया है। मुनिजी इतने अधिक निर्भय और खतन्त्र प्रकृतिके मुझको मालूम हुए हैं कि उन्हें कोई भी धनी या विद्वान् दूसरी तरहसे अपने निकट इतना अधिक लानेमें सफल हुआ कभी मैंने नहीं देखा । जैन और जैनेतर परम्पराके अनेक धनी मानी उनके परिचयमें अधिकातिक आते गये मैंने देखे हैं, पर उन्हें जितना सिंघीजी अपने निकट ला सके उतना कोई ला न सका। इसका प्रधान कारण असाम्प्रदायिक खत मनोवृत्तिकी समानता ही मुझको प्रतीत हुई है । मैं समझता हूँ कि कोई भी पारस्परिक स्थायी कार्यसाधक सुमेल चाहता हो तो उसे ऊपर सूचित तीन तत्त्वोंका अवलम्बन लेना चाहिये।
" सिंघीजी पूरे राष्ट्रप्रेमी थे- यद्यपि राष्ट्रकी वर्तमान प्रवृत्तियोंमें उन्होंने बाहरसे कोई विशेष सक्रिय भाग नहीं लिया तथापि उनका अन्तर. संपूर्णतः राष्ट्रके उत्थान और जागरणमें ओतप्रोत था। इसी तरह वे धार्मिक और सामाजिक सुधारके भी उत्सुक अभिलाषी थे- इस विषयकी जितनी भी सत्प्रवृत्तियां जहां कहीं होती रहती थीं उनमें उनकी पूरी सहानुभूति और सन्निष्ठा रहती थी।
उनके खर्गवाससे जैन समाज एक ऐसे महान् व्यक्तित्वसे वञ्चित हुआ है जिसकी पूर्ति होना सहज नहीं ।
उनकी उस महान् आत्माको परम शान्ति प्राप्त हो यही मेरी आन्तरिक प्रार्थना है।
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